Shree Vyankatesh Stotra-श्री व्यंकटेश स्तोत्र 

श्री व्यंकटेश स्तोत्र भगवान व्यंकटेश्वर को समर्पित स्तोत्र है। Shree Vyankatesh Stotra दुर्गुणों और आपत्तियों से मुक्ति के लिए बचता है और भक्तों को धन और समृद्धि की प्राप्ति में सहायता करता है। श्री व्यंकटेश स्तोत्र को प्रतिदिन जाप करने से भगवान व्यंकटेश्वर की कृपा और आशीर्वाद प्राप्त होता है। यह स्तोत्र व्यक्ति के मन में शांति, समृद्धि और सुख का आभास कराता है और दुर्भाग्य और निराशा को हराने में सहायता करता है। श्री व्यंकटेश स्तोत्र पढ़ने से हमारा दिमाग शांत होता है ,मनोदशा सुधारती है और जीवन में समृद्धि आती है। इसका प्रतिदिन पाठ करने से समस्त दुःख और संकटों का नाश होता है।
Shree Vyankatesh Stotra-श्री व्यंकटेश स्तोत्र

Shree Vyankatesh Stotra Lyrics

 श्रीगणेशाय नमः।। श्रीव्यंकटेशाय नमः।।

ॐ नमो जी हेरंबा। सकळादि तूं प्रारंभा। आठवुनि तुझी स्वरूपशोभा। वंदन भावें करितसें।।१।।

नमन माझे हंसवाहिनी। वाग्वरदे विलासिनी ग्रंथ वदावया निरुपणीं। भावार्थखाणी जयामाजी।।२।।

नमन माझें गुरूवर्या। प्रकाशरूपा तूं स्वामिया स्फूर्ति द्यावी ग्रंथ वदावया। जेणें श्रोतयां सुख वाटे।।३।।

नमन माझें संतसज्जनां। आणि योगियां मुनिजनां सकळ श्रोतयां साधुजनां। नमन माझें साष्टांगीं।।४।।

ग्रंथ ऐका प्रार्थनाशतक। महादोषांसी दाहक तोषूनियां वैकुंठनायक। मनोरथ पूर्ण करील।।५।।

जयजयाजी व्यंकटरमणा। दयासागरा परिपूर्णा परंज्योति प्रकाशगहना। करितों प्रार्थना श्रवण कीजे।।६।।

जननीपरी त्वां पाळिलें। पितयापरी त्वां सांभाळिलें सकळ संकटापासूनी रक्षिलें। पूर्ण दिधलें प्रेमसुख।।७।।

हें अलोलिक जरी मानावें। तरी जग हें सृजिलें आघवें जनक -जननीपण स्वभावें। सहज आलें अंगासी।।८।।

दीननाथा प्रेमासाठीं। भक्त रक्षिले संकटीं प्रेम दिधलें अपूर्व गोष्टी। भजनासाठीं भक्तांच्या।।९।।

आतां परिसावी विज्ञापना। कृपाळुवा लक्ष्मीरमणा मज घालोनी गर्भाधाना। अलोलिक रचना दाखविली।।१०।।

तुज न जाणतां झालोंकष्टि।आंता दॄढ तुझें पायीं घातली मिठी कृपाळुवा जगजेठी। अपराध पोटीं घाली माझें।।११।।

माझिया अपराधांच्या राशी। भेदोनी गेल्या गगनासी दयावंता हृषीकेशी। आपुल्या ब्रिदासी सत्य करी।।१२।।

पुत्राचे सहस्र अपराध। माता काय मानी तयांचा खेद तेवीं तूं कृपाळू गोविंद। मायबाप मजलागीं।।१३।।

उडदांमाजी काळेंगोरें। काय निवडावें निवडणारें कुचलिया वृक्षाचीं फळें। मधुर कोठोनि असतील।।१४।।

अराटीलागीं मृदुता। कोठोनि असेल कृपावंता पाषाणासी गुल्मलता। कैशियापरी फुटतील।।१५।।

आपादममस्तकावरी अन्यायी। परी तुझे पदरीं पडीलों पाहीं आतां रक्षण नाना उपायीं। करणे तुज उचित।।१६।।

समर्थाचे घरीचें श्वान। त्यासी सर्वही देती मान तैसा तुझा म्हणवितो दीन। हा अपमान कवणाचा।।१७।।

 लक्ष्मी तुझे पायातळीं। आम्ही भिक्षेसी घालोनी झोळी येणें तुझी ब्रीदावळी। कैसा राहिल गोविंदा।।१८।।

कुबेर तुझा भांडारी। आम्हां फिरविसि दरोदारीं यांत पुरुषार्थ मुरारी। काय तुजला पै आला।।१९।।

द्रौपदिसी वस्त्रें अनंता। देत होतासी भाग्यवंता आम्हालागीं कृपणता। कोठोनि आणिली गोविंदा।।२०।।

मायेची करुनि द्रौपदी सती। अन्ने पुरविली मध्यरात्रीं ऋषीश्वरांच्या बैसल्या पंक्ती। तृप्त केल्या क्षणमात्रें।।२१।।

अन्नासाठिं दाहि दिशा। आम्हां फिरविसी जगदीशा कृपाळुवा परमपुरषा। करुणा कैशी तुज न ये ।।२२।।

अंगीकारीं या शिरोमणी। तुज प्रार्थितों मधुर वचनीं अंगीकार केलिया झणीं। मज हातींचें न सोडावें ।।२३।।

समुद्रें अंगीकारीला वडवानळ। तेणें अंतरीं होतसे विव्हळ ऐसें असोनी सर्वकाळ।अंतरीं सांठवीला तयानें ।।२४।।

कुर्में पृथ्वीचा घेतला भार। तेणें सोडिला नाहीं बडिवार एवढा ब्रह्मांडगोळ थोर। त्याचा अंगीकार पै केला।।२५।।

शंकरें धरिलें हळाहळा। तेणें नीळवर्ण झाला गळा परी त्यागिलें नाहीं गोपाळा। भक्तवत्सला गोविंदा ।।२६।।

  माझिया अपराधांच्या परी।वर्णितां शिणली वैखरी दुष्ट पतित दुराचारी।अधमाहुनि अधम ।।२७।।

 विषयासक्त मंदमति आळशी।कृपण कुव्यसनी मलिन मानसीं सदा सर्वकाळ सज्जनांशीं।द्रोह करीं सर्वदा ।।२८।।

वचनोक्ति नाहीं मधुर। अत्यंत जनांसीं निष्ठुर सकळ पामरांमाजी पामर। व्यर्थ बडिवार जगीं वाजे ।।२९।।

काम क्रोध मद मत्सर। हें शरीर त्यांचें बिडार कामकल्पनेसि थार। दॄढ येथें केला असे ।।३०।।

अठरा भार वनस्पतींची लेखणी। समुद्र भरला मषिकरुनि माझे अवगुण लिहितां धरणी। तरी लिहिले न जाती ।।३१।।

ऐसा पतित मी खरा। परी तूं पतितपावन शारङधरा तुवां अंगीकार केलिया गदाधरा। कोण दोषगुण गणील ।।३२।।

नीच रतली रायाशीं। तिसी कोण म्हणेल दासी लोह लगतां परिसासी। पूर्वस्थिति मग कैची ।।३३।।

गांवींचें होते लेंडवोहळ। गंगेसी मिळतां गंगाजळ कागविष्ठेचे झाले पिंपळ। तयांसी निंद्य कोण म्हणे ।।३४।।

तैसा कुजाति मी अमंगळ। परी तुझा म्हणवितों केवळ कन्या देऊनियां कुळ। मग काय विचारावें ।।३५।।

जाणत असतां अपराधी नर। तरी कां केला अंगीकार अंगीकारावरी अव्हेर। समर्थें न केला पाहिजे ।।३६।।

धांव पाव रे गोविंदा। हातीं घेवोनियां गदा करीं माझ्या कर्मांचा चेंदा। सच्चिदानंदा श्रीहरी ।।३७।।

तुझिया नामाची अपरिमित शक्ति। तेथें माझीं पापें किती कृपाळुवा लक्ष्मीपति। बरवें चित्तीं विचारीं ।।३८।।

       तुझें नाम पतितपावन।तुझें नाम कलिमलदहन तुझें नाम भवतारण।संकटनाशक नाम तुझें ।।३९।।

 आतांप्रार्थना ऐकें कमळापति। तुझें नामीं राहो माझी मती हेंचि मागतों पुढतापुढती।परंज्योति व्यंकटेशा।।४०।।

तूं अनंत तुझीं अनंत नामें। तयांमाजी अति सुगमें तीं मी अल्पमति प्रेमें। स्मरुनि प्रार्थना करितसें।।४१।।

श्री व्यंकटेशा वासुदेवा। प्रद्युम्ना अनंत केशवा संकर्षणा श्रीधरा माधवा। नारायणा आदिमूर्ते।।४२।।

पद्मनाभा दामोदरा। प्रकाशगहना परात्परा आदिअनादि विश्वंभरा। जगदुद्धारा जगदीशा।।४३।।

कृष्णा विष्णो हृषीकेशा। अनिरुद्धा पुरुषोत्तमा परेशा नृसिंह वामन भार्गवेशा। बौद्ध कलंकी निजमूर्ति।।४४।।

अनाथरक्षका आदिपुरुषा। पूर्णब्रह्मा सनातन निर्दोषा सकळ मंगळ मंगळाधीशा। सज्जनजीवना सुखमुर्ते।।४५।।

गुणातीता गुणज्ञा। निजबोधरूपा निमग्ना शुद्ध सात्विका सुज्ञा। गुणप्राज्ञा परमेश्वरा।।४६।।

श्रीनिधि श्रीवत्सलांछनधरा। भयकृभ्दयनाशना गिरिधरा दुष्टदैत्यसंहारकरा। वीर सुखकरा तूं एक ।।४७।।

निखिल निरंजन निर्विकारा। विवेकखाणी -वैरागरा मधुमुरदैत्यसंहारकरा। असुरमर्दना उग्रमूर्ते।।४८।।

शंखचक्रगदाधरा। गरुडवाहना भक्तप्रियकरा गोपीमनरंजना सुखकरा। अखंडित स्वभावें।।४९।।

नाना नाटक -सुत्रधारिया। जगद्वयापका जगद्वर्या कृपासमुद्रा करुणालया। मुनिजन ध्येया मूळमूर्ति।।५०।।

शेषशयना सार्वभौमा। वैकुंठवासिया निरुपमा भक्त कैवारिया गुणधामा। पाव आम्हां ये समयीं।।५१।।

ऐसी प्रार्थना करुनि देवीदास। अंतरीं आठविला श्रीव्यंकटेश स्मरता हृदयीं प्रकटला ईश। त्या सुखसी पार नाहीं।।५२।।

हृदयीं आविर्भवली मूर्ति। त्या सुखाची अलौकिक स्थिति आपले आपन श्रीपती। वाचे हातीं वदवितसे।।५३।।

तें स्वरुप अत्यंत सुंदर। श्रोतीं श्रवण कीजे सादर सांवळी तनु सुकुमार। कुंकुमाकार पादपद्में।।५४।।

सुरेख सरळ अंगोळिका। नखें जैसी चंद्ररेखा घोटिंव सुनीळ अपूर्व देखा। इंद्रनीळाचियेपरी।।५५।।

चरणीं बाळे घागरिया। वांकी वरत्या गुजरिया सरळ सुंदर पोटरिया। कर्दळीस्तंभाचियेपरी।।५६।।

गुडघे मंडिया जानुस्थळ। कटितटीं किंकिणी विशाळ खालतें विश्वउत्पत्ति स्थळ। वरी झळाळे सोनसळा।।५७।।

कटीवरतें नाभिस्थान। जेथोनी ब्रह्मा झाला उत्पन्न उदरीं त्रिवळीं शोभे गहन। त्रैलोक्य संपूर्ण जयामाजी।।५८।।

वक्षःस्थळीं शोभे पदक। पाहोनि चंद्रमा अधोमुख वैजयंती करी लखलख। विद्युल्लतेचियेपरी।।५९।।

हृदयीं श्रीवत्सलांछन। भूषण गिरवी श्रीभगवान तयावरतें कंठस्थान। जयासी मुनिजन अवलोकिती।।६०।।

उभय बाहुदंड सरळ। नखें चंद्रापरीस तेजाळ शोभती दोन्ही करकमळ। रातोत्पलाचियेपरी।।६१।।

मनगटिं विराजती कंकणें। बाहुवटीं बाहुभूषणें कंठिं लेइलीं आभरणें। सूर्यकिरणें उगवलीं।।६२।।

कंठावरुतें मुखकमळ। हनुवटी अत्यंत सुनीळ मुखचंद्रमा अति निर्मळ। भक्तस्नेहाळ गोविंदा।।६३।।

दोन्ही अधरांमाजी दंतपंक्ती। जिव्हा जैसी लावण्यज्योति अधरामृतप्राप्तिची गति। तें सुख जाणे लक्ष्मी।।६४।।

सरळ सुंदर नासिक। जेथें पवनासी झालें सुख गंडस्थळींचें तेज अधिक। लखलखित दोहिं भागीं।।६५।।

त्रिभुवनींचें तेज एकवटलें। बरवेपण शिगेसी आलें दोहिं पातयांनीं धरिलें। तेच नेत्र श्रीहरीचे।।६६।।

व्यंकटा भुकुटिया सुनीळा। कर्णव्दयांची अभिनव लीळा कुंडलांच्या फांकति कळा। तो सुखसोहळा अलौकिक।।६७।।

भाळ विशाळ सुरेख। वरति शोभे कस्तूरीटीळक केश कुरळ अलोकिक। मस्तकावरी शोभती।।६८।।

मस्तकीं मुकुट आणि किरीटी। सभोंवतीं झिळमिळयांची दाटी त्यावरी मयूरपिच्छां ची वेटी। ऐसा जगजेठी देखिला।।६९।।

ऐसा तू देवाधिदेव। गुणातीत वासुदेव माझिया भक्तीस्तव। सगुणरूप झालासी।।७०।।

आतां करूं तुझी पूजा। जगज्जीवना अधोक्षजा आर्ष भावार्थ हा माझा। तुज अर्पण केला असे।।७१।।

करुनि पंचामृतस्नान। शुद्धोदक वरी घालून तुज करूं मंगलस्नान। पुरुषसूक्तें करूनियां।।७२।।

वस्त्रें आणि यज्ञोपवीत। तुजलागीं लरुं प्रीत्यर्थ गंधाक्षता पुष्पें बहुत। तुजलागीं समर्पु।।७३।।

धुप दिप नैवेद्य। तांबूल फल दक्षिणा शुद्ध वस्त्रें भूषणें गोमेद। पद्मरागादिकरुनि।।७४।।

भक्तवत्सला गोविंदा। ही पूजा अंगीकारावी परमानंदा नमस्कारुनि पदारविंदा। मग प्रदक्षिणा आरंभिलि।।७५।।

ऐसा षोडशोपचारें भगवंत। यथाविधि पूजिला हृदयांत मग प्रार्थना आरंभिलि बहुत। वरप्रसाद मगावया।।७६।।

जयजयाजी श्रुतिशास्त्र आगमा। जयजयाजी गुणातीत परब्रह्मा जयजयाजी हृदयवासिया रामा। जगदुद्धारा जगद्गुरो।।७७।।

जयजयाजी पंकजाक्षा। जयजयाजी कमळाधीशा जयजयाजी पूर्णपरेक्षा। अव्यक्तव्यक्ता सुखमुर्ते।।७८।।

जयजयाजी भक्तरक्षका। जयजयाजी वैकुंठनायका जयजयाजी जगपालका। भक्तांसी सखा तूं एक ।।७९।।

जयजयाजी निरंजना। जयजयाजी परात्परगहना जयजयाजी शून्यातीत निर्गुणा। परिसावी विज्ञापना एक माझी।।८०।।

मजलागि देई ऐसा वर। जेणें घडेल परोपकार हेंचि मागणें साचार। वारंवार प्रार्थीतसें।।८१।।

हा ग्रंथ जो पठण करी। त्यासी दुःख नसावें संसारीं पठणमात्रें चराचरीं। विजयीं करीं जगातें।।८२।।

लग्नार्थीयाचे व्हावें लग्न। धनार्थियासी व्हावें धन पुत्रार्थियाचे मनोरथ पूर्ण। पुत्र देऊनि करावें।।८३।।

पुत्र विजयी आणि पंडित। शयायुषि भाग्यवंत पितृसेवेसी अत्यंत रत। जयाचें चित्त सर्वकाळ।।८४।।

उदार आणि सर्वज्ञ। पुत्र देई भक्तांलागुन व्याधिष्ठांची पीडा हरण। तत्काळ कीजे गोविंदा।।८५।।

क्षय अपस्मार कुष्ठादि रोग। ग्रंथपठणें सरावा भोग योगभ्यासियासी योग। पठणमात्रें साधावा।।८६।।

दरिद्री व्हावा भाग्यवंत। शत्रूचा व्हावा निःपात सभा व्हावी वश समस्त। ग्रंथपठणेंकरूनियां।।८७।।

विद्यार्थियासी विद्या यावी। युद्धिं शस्त्रें न लागावीं पठणें जगांत कीर्ति व्हावी। साधु साधु म्हणोनियां।।८८।।

अंतीं व्हावें मोक्षसाधन। ऐसें प्रार्थनेसी दीजे मन एवढें मागतों वरदान। कृपानिधे गोविंदा।।८९।।

प्रसन्न झाला व्यंकटरमण। देवीदासासि दिधलें वरदान ग्रंथाक्षरीं माझें वचन। यथार्थ जाण निश्चयेंसिं।।९०।।

ग्रंथीं धरोनि विश्वास। पठण करील रात्रंदिवस त्यालागीं मी जगदीश। क्षण एक न विसंबें।।९१।।

इच्छा धरुनि करील पठण। त्याचें सांगतों मी प्रमाण सर्व कामनेसी साधन। पठण एक मंडळ।।९२।।

पुत्रार्थियानें तीन मास। धनार्थियानें एकवीस दिवस कन्यार्थीयानें षण्मास। ग्रंथ आदरें वाचवा।।९३।।

क्षय अपस्मार कुष्ठादिरोग। इत्यादि साधनें प्रयोग त्यासी एक मंडल सांग। पठणें करुनि कार्यसिद्धि।।९४।।

हें वाक्य माझें नेमस्त। ऐसें बोलिला श्री भगवंत साच न मानी जयाचें चित्त। त्यासी अधःपात सत्य होय।।९५।।

विश्वास धरिल ग्रंथपठणीं। त्यासी कृपा करील चक्रपाणी वर दिधला कृपा करुनि। अनुभवें कळों येईल।।९६।।

गजेंद्राचिया आकांतासी। कैसा पावला हृषीकेशी प्रल्हादाचिया भवार्थासी। स्तंभातुनि प्रकटला।।९७।।

व्रजसाठीं गोविंदा। गोवर्धन परमानंदा उचलोनियां स्वानंदकंदा। सुखी केलें तये वेळीं।।९८।।

वत्साचेपरी भक्तांसी। मोहें पान्हावे धेनु जैसी मातेच्या स्नेहतुलनेसी। त्याचपरी घडलेंसे।।९९।।

ऐसा तूं माझा दातार। भक्तासी घालिसि कृपेची पाखर हा तयाचा निर्धार। अनाथनाथ नाम तुझें।।१००।।

श्रीचैतन्यकृपा अलोकिक। संतोषुनि वैकुंठनायक वर दिधला अलोकिक। जेणें सुख सकळांसी।।१०१।।

हा ग्रंथ लिहिता गोविंदा। या वचनीं न धरवा भेद हृदयीं वसे पमानंद। अनुभवसिद्ध सकळांसी।।१०२।।

या ग्रंथींचा इतिहास। भावें बोलिला विष्णुदास आणिक न लगती सायास। पठणमात्रें कार्यसिद्धि।।१०३।।

पार्वतीस उपदेशी कैलासनायक। पूर्णानंद प्रेमसुख त्याचा पार न जाणती ब्रह्मादिक। मुनी सुरवर विस्मित।।१०४।।

प्रत्यक्ष प्रगटेल वनमाळी। त्रैलोक्य भजन त्रिकाळीं ध्याति योगी आणि चन्द्रमाळी। शेषाद्री पार्वतीं उभा असे।।१०५।।

देवीदास विनवी श्रोतयां चतुरां। प्रार्थना शतक पठण करा जावया मोक्षाचिया मंदिरा। काहिं न लागति सायास।।१०६।।

एकाग्रचित्तें एकांतिं। अनुष्ठान किजे मध्यरात्रीं बैसोनियां स्वस्थचित्तीं। प्रत्यक्ष मूर्ति प्रगटेल।।१०७।।

तेथें देहभावासी नूरे ठाव। अवघा चतुर्भुज देव त्याचे चरणी ठेवोनी भाव। वरप्रसाद मागवा।।१०८।।

 

।। इति श्रीदेवीदासविरचितं श्रीव्यंकटेशस्त्रोत्रं सपूर्णम।।


श्रीव्यंकटेशस्त्रोत्रम 

व्यंकटेश वासुदेवः प्रद्युम्नोमितविक्रमः। संकर्षणोनिरुद्धश्च शेषाद्रीपतिरेव च।।१।। 

जनार्दनः पद्मनाभो वेंकटाचलवासिनः। सृष्टिकर्ता जगन्नांथो माधवो भक्तवत्सलः।।२।।

गोविंदो गोपतिः कृष्णः केशवो गरुडध्वजः। वराहो वामणश्चैव नारायण अधोक्षजः।।३।।

श्रीधरः पुंडरीकाक्षः सर्वदेवस्तुतो हरिः। श्रीनृसिंहो महासिंहः सूत्राकारः पुरातनः।।४।।

रमानाधो महीभर्ता मधुरः पुरुषोत्तमः। चोलपुत्रप्रियः शांतो ब्रह्मादीनां वरप्रदः।।५।।

श्रीनिधिः सर्वभूतानां भयकृद्भयनाशनः। श्रीरामो रामभद्रश्च भवबंधैकमोचकः।।६।।

भूतावासो गिरावासः श्रीनिवासः श्रियः पतिः। अच्युतानंतगोविंदो विष्णुर्वेंकटनायक।।७।।

सर्वदेववैकशरणं सर्वदेवैकदैवतं। समस्तदेवकवचं सर्वदेवशिखामणिह:।।८।। 

इतीदं कीर्तितं यस्य विष्णोरमिततेजसः। त्रिकालेयः पठेन्नित्यं पापं तस्य न विद्यते।।९।।

राजद्वारे पठेद घोरे संग्रामे रिपुसंकते। भुत -सर्प -पिशाचादिभयं नास्ति कदाचन।।१०।।

अपुत्रो लभते पुत्रान निर्धनो धनबान्भवेत। रोगार्तो मुच्यते रोगाद बद्धि मुच्येत बंधनात।।११।।

यद्यदिष्टतमं लोके तत्तत्पाप्नोत्यसंशयः। ऐश्वर्य राजसन्माने भुक्तिमुक्तिफलप्रदम।।१२।।

विष्णोर्लोकैकसोपानं सर्वदु:खैकनाशनं। सर्वैश्चर्यप्रदं नृणां सर्वमंगलकारकम।।१३।।

मायावी परमानंदं त्यक्त्वा वैकुंठमुत्तमं। स्वामिपुष्करिणीतीरे रमया सह मोदते।।१४।।

कल्याणाभ्दृतगात्राय कामितार्थप्रदायिने। श्रीमद्वेंकटनाथाय श्रीनिवसाय ते नमः।।१५।।

 

*श्रीव्यंकटेशध्यानम *

श्री वत्सं मणिकौस्तुभं च मुकुटं केयुरमुद्रांकितं। 

बिभ्राणं वरदं चतुर्भुंजधरं पितांबरोद्भासितम।।

मेघश्यामतनुं प्रसन्नवदनं फुल्लारविंदेक्षणं। 

ध्यायेद्वयंकटनायकं हरिरमाधीनं सुरर्वदितम।।१।।

व्यंकटाद्रिसमं स्थानं ब्रह्मांडे-नास्ति किंचन। 

व्यंकटेशसमो देवो न मुतो न भविष्यति।।२।।

मुरारी जगन्नाथ नारायण हो। कृपासागरा अच्युता माधवा हो। 

मधुसूदना श्रीधरा भाग्यवंता। नमस्कार हा व्यंकटेशा समर्था।।३।।


*श्री व्यंकटेशाचि आरती *

(१ )

क्षित्युद्वारं कर्तु विरिंचिसंभूतं।। स्वीकृतसुकरमूर्ति संव्याप्त दिगंतं।।

ऋषिसुरनुतगुणजातं यज्ञांगैर्वीतर्त।। ध्याये लक्ष्मीकांतं शेषाद्रिप्रथितं।।१।।

जय देव जय देव दिनकृपासिंधो।।व्यंकटनाथ स्वचरणशरणागतबंधो।।ध्रृ०।।

गर्जितपुरित गगनं विस्फारित भुवनं।। तनुजलपूतं स्वजनं सुविहितमुन्नयनं।।

स्थापितमनुजस्थानं हारितहितजिनन।। हर्षितमुनिगीर्वाणं सेवे गिरिसदनं।।२।।

वंदे कमलामोदं सच्चित्सुखकंदं।।पलितनिजकृतिवेदं निरस्तभवभेदं।।

विधिहरपूजितपारं संहारितखेदं।।काशीतनुजानंतं दत्तेप्सित वृंद।।३।।

(२ )

शेषाचल -अवतार तारक तूं देवा। सुरवर मुनिजन भावें करिती तव सेवा। 

कमलारमणा अससी अगणितगुणठेवा। कमलाक्षा मज रक्षीं सत्वर बर द्यावा।।१।।

जयदेव जयदेव जय व्यंकटेशा। केवळ करुणासिंधो पुरविसी आशा।।ध्रृ०।।

हें निजवैकुंठ म्हणुणी ध्यातों मी तूतें। दाखविसि गुण कैसे सकळिक लोकांतें। 

देखूनि तुझें स्वरूप सुख अद्भुत हूोतें। ध्यातां तुजला श्रीपति दॄढ मानस होतें।।२।।

 

Shree Vyankatesh Stotra Video


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