Shri Gajanan Vijay Granth Sankshipt-श्री गजानन विजय ग्रंथ संक्षिप्त

*श्री गजानन महाराज प्रसन्न *

श्री गजानन विजय ग्रंथ की रचना श्री संत दासगणू द्वारा मराठी भाषा में लिखी है एक आध्यात्मिक ग्रंथ है। Shri Gajanan Vijay Granth Sankshipt ग्रंथ संत गजानन महाराज के जीवन के घटनाओं को अधोरेखांकित करता है। इस ग्रंथ में २१ अध्याय है और हजारों श्लोक हैं। इस लेख में इसका संक्षिप्त स्वरुप प्रस्तुत किया गया है। जो लाखों भक्तों द्वारा पढ़ा जाता है। श्री गजानन विजय ग्रंथ का पाठ करनेसे भक्तों के जीवन से दुःख और कष्ट दूर होते है और गजानन महाराज के आशीर्वाद से भक्तों जीवन में सुख शांति की प्राप्ति होती है।
Shri Gajanan Vijay Granth Sankshipt-श्री गजानन विजय ग्रंथ संक्षिप्त

Shri Gajanan Vijay Granth Sankshipt

२१ अध्यायी संपूर्ण पारायण (संक्षिप्त )

अध्याय १ ला

अन्न परब्रह्म श्रुतीचे निदान। तया मान देती गजानन। 

पाहती ते लोक ,रस्त्या माजी प्रकार। योगी अवलियाच तो दिसे निर्वीकर।। 

अध्याय २ रा 

मनोदय ज्याचे बधा होय जैसे। तैसे ते दिसती सन्त सर्वासी। 

बंकट सदनी जेवीगजानन। इच्छे परी प्रसाद होय सर्वासी।।

अध्याय ३ रा 

महा भक्त प्रेमी जानराव खास। मरणोन्मुख असता वाचविला। 

तिर्थ अंगाऱ्याची  ऐसी ही महती। काय वाणे जिव्हा शद्धाने ती ख्याती। 

 अध्याय ४ था 

ज्याचा जैसा भाव तैसा त्यासी देव। करोनी व्यवहार दावी भक्त। 

सोनारा नमवी आपुल्याकृतीने। सामर्थ्याची महती सत्य साक्षी। 

अध्याय ५ वा 

भक्तासाठी देव करी चमत्कार। मगची नमस्कार वेद वाणी। 

पाटलांचे पोर पाहुनी परीक्षा। घेती सेवा दिक्षा विश्वासाते। 

ऊसाने मारिले अहंकारी मने। परी तोषविले गजानने।।

 अध्याय ६ वा 

खावू भक्त सारे मका तेथ खाती। दुःख तो एकटा दुःख भोगे। 

माया , मोह ,मद मोहळ झोंबता। जाणीव ते देति बंकटासी। 

 सर्वं सुखा साथी दुःख नये कोणी। जाणीव ठेवोनी साधी हिता।।

अध्याय ७ वा 

मनाची ती आशा पुरवी गजानना। कोरड्या विहिरी माजी जल ते प्रमाण। 

आडदान्ड भास्कर चरणी नमविला। कृतार्थ तो केला धन्य धन्य।।

अध्याय ८ वा

मन  हे चंचल खोडाळ नाठाळ। वठवी त्या सन्त कृपे पाई। 

हरदासाचा घोडा पहा शान्त केला।  महती ती गाई दास सेवे। 

पशु ,पक्षी ,हीना सर्वा सम भावे। निदानी पहावे एक चित्ते।।

 अध्याय ९ वा 

अहंकारे बोल गोसावी बोलती। बोल घेवडे ते स्वार्थ साधू। 

गजानन दावी स्वये वर्तंवोन। थक्क भक्त तेथ झाले गोसावी ते। 

जळत्या पलंगी आपण बैसले। म्हणे येई भले करावया।।

 अध्याय १० वा 

 नाठाळ ती गाय बाळापूरी जाण। आणता चरणी शान्तविली। 

पूर्वं जन्मीचा तो दोष निवारीला। वाही चरणी नीर गाय तेथे। 

भेदा भेद जाय दर्शंने सन्ताच्या। स्वभावे पालट नीच कृत्य।।

 अध्याय ११ वा

भास्कराच्या तेरवी सर्वा तुष्टविति। काक ते जेविति सर्वा सवे। 

आप ,पर ,भावे मारती त्या काका। परी गजानन सांभाळती। 

 गजानन सांगे जारे कावळ्यांनो। नका येथे येवू आन तुम्हा। 

पशु पक्षी ते आज्ञेत वागती। सन्त बोल सर्वां प्रत्ययासी।।

अध्याय १२ वा 

 सभोवती सर्व निरर्थक खावू। पितांम्बरा दावी मार्गं तेथ। 

म्हणें कोंन्डोलीला जावे हेची बरवे। दाविता हिनत्व काज खोटे। 

तु तो सत्य जाणी माझा एक अंश। साधी रे मोक्षार्थं हिता पाई। 

तोच पितांबर हिरवा करी आंबा। साक्ष त्या कोन्डोली भक्ता पाई। 

अध्याय १३ वा 

महारोगो तो येता भाव ठेवोनी। बेडका तो झाला मलम त्याते। 

शुद्ध अंग झाले निर्विंकार मने। गाई तेथ गाणे भारती तो। 

कृपेची महती काय कोण वाणे। परी श्रद्धा होता मार्ग सोपा। 

अध्याय १४ वा 

 तिर्थ क्षेत्र सारे सन्ताचे चरण। ओंकारेश्वरी दावी नर्मदा ती। 

जल उचंबळे स्पर्शं तो कराया। आणीक म्हणती लोमे मेलो। 

तारक सर्वांचा असता जवळी। दगड न भिजति गंगा स्नाने।।

अध्याय १५ वा 

देशोद्वारा पाई भूषण तो टिळक। कृपेच श्रेष्ठी त्या भारती या। 

 आपुलिया बोली बेडी आली पाया। सर्वं झाले वाया कारण ते। 

कारागृही 'गिता 'मुख प्रसवली। थोर ती जाहली सन्त कृपे।।

अध्याय १६ वा 

भाकर झुनका कव्हराचा खाई। प्रेमे हौस पुरवी भक्ताची हो। 

आकोल्याचा कव्हर ,कासीचा गोसवी। प्रमाण ते दावी कृपा गाथा। 

दास गणु वर्णी त्यांचे सर्वं बोल। नारायणी  धन्य निदान हे। 

 अध्याय १७ वा 

नसता मनांत उगा त्रास होता। दाखवी नागडे गाडीत बैसले। 

बायका त्या भीती कृती पाई। आपुलिया सत्ते निर्जीवा राबती। 

कृपे दे श्रेष्ठी तेथ गाडी पाई। संभाळावे सत्ता जरी वाटे भक्ता। 

परी व्यर्थ होय प्रयास ते। 

 अध्याय १८ वा 

परम प्रिय भक्त बापूना होय। तयासी दाविति आत्य सत्य। 

गजानना भावे करीता दन्डवत। विठ्ठल स्वरुपे दोन्ही पाही। 

गजानन तोची विठ्ठल स्वरुप। भेद निमाया तो बापुनाचा। 

अध्याय १९ वा 

बाळापुरी बाळा भक्त रामदासी। प्रती वर्षीं वारी गदावरी। 

परी सांक्षात स्वरुप ते रामदास। गजानन एक माझे हो स्वरुप। 

दास नवमी पाई आले बाळापुरी। बाळा करी पूजा  समर्थाची। 

'जय जय रघुवीर समर्थ 'मंत्र उच्चारिता। दिसला गजानन रामदास।।

अध्याय २० वा 

परमहंस जाता रुपे जांजळासी भेटै। मुंबईस जाता कारणीक। 

काय नाही भाव विश्वास चरणी। पाहसी विपरीत ते काय येथे। 

सोडोनी संशय करी सत्य काज।  झाला उपदेउ जांजळे तो।। 

  अध्याय २१ वा 

जो या ग्रंथी ठेवील भाव। संकटी त्याच्या घेईल धाव। 

हा ग्रंथ केवळ चिंतामणी। दॄढतर विश्वास असल्या मनी। 

जेथे गजानन चरित्राचा। तेथे वास लक्ष्मीचा। 

दरिद्रयासी मिळेल धन। सध्वी स्त्रीचे वांझपण। 

दशमी ,एकादशी ,द्वादशीला। अनुपम येईल भाग्य त्याला। 

 त्या पावेल स्वामीराय। रक्षण त्यांचे करावया। 

चिंतिले फळ येईल जानी। हे मात्र विसरु नका। 

पाठ होईल नित्य साचा। चिरकाल होईल हो। 

 रोगियासी आरोग्य जान। फिटेल त्याच्या वाचने। 

हा ग्रंथ जो वाची भला। श्री गजानन कृपेने। 

 

आपने अभी "श्री गजानन विजय ग्रंथ संक्षिप्त" के बोल इस लेख में देखे हैं, इस भक्तिपूर्ण और आध्यात्मिक स्तोत्र से सबंधित अन्य देवतावों के स्तोत्र निचे दिये गये हैं जो आपको अवश्य ही पसंद आयेगे, कृपया करके इन स्तोत्र को भी देखें.

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