Shani Mahatmya-शनि महात्म्य

शनि महात्म्य में शनि देवता की महिमा, कथाएं और पूजा विधि का वर्णन किया गया है। Shani Mahatmya के अनुसार, शनि भगवान हमारे जीवन में कर्मों के नियमों का प्रतिक होते है। वे धर्म के पालन के प्रतिक माने जाते हैं और कर्मों के अनुसार हमें फल देते हैं। शनि देव की अशुभ स्थिति से मनुष्य की जीवनमुखी समस्यायें उत्पन्न होती हैं। जैसे की धन की कमी, स्वास्थ्य समस्याएं, आध्यात्मिक तरक्की की अव्यवहारिकता आदि। 

शनि महात्म्य का पाठ अथवा सुनने से मनुष्य के ऊपर शनि दोष का प्रभाव कम होता है। इस ग्रंथ के पठन से व्यक्ति के जीवन से समस्यायें दूर होती हैं और सुख, समृद्धि और सफलता मिलती है। शनि महात्म्य को नियमित रूप से पाठ करने पर हमारे सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और हमारे ऊपर भगवान शनि की कृपा बनी रहती हैं।
Shani Mahatmya-शनि माहात्म्य

Shani Mahatmya Lyrics

*श्री शनिमाहात्म्य *

।।श्री गणेशाय नमः।।

ॐ नमोजी गणनायक। एकदंता वरदायका।।

स्वरुप सुंदरा विनायका। करी कृपा मजवरी।।१।।

आतां नमूं ब्रह्मकुमारी। हंसारूढ वागीश्वरी।

 वीणा शोभे दक्षिण करी। विजयमूर्ति सर्वदा।।२।।

नमन माझें गुरूवर्या। सुखमुर्ति  करुणालया।।

नमूं सतंश्रोतयांच्या पायां। अभेद भेदा करुनि।।३।।

आतां नमूं श्रीपांडुरंगा। यावें तुवां कथेचिया प्रसंगा। 

निरसुनि माझिया भवसंगा। करी कृपा मजवरी।।४।।

गुजरात -भाषेची कथा। नवग्रहांची तत्त्वतां। 

ही ऐकतां एकचित्ता। संकट व्यथा न बाधती।।५।।

आतां उज्जनी नाम नगरीं। राजा विक्रम राज्य करी।।

तेथील चरित्राची परी। ऐका चित्त देऊनियां।।६।।

कोणे एके दिवशीं प्रातःकाळीं। बैसली होती सभामंडळी।।

तेथें महापंडित त्या काळीं। लहान थोर बैसले।।७।। 

ऐसी सभा बैसली घनदाट। तेथें चर्चा निघाली सुभट।।

म्हणती नवग्रहांत कोण श्रेष्ठ। सांगावें नीट निवडोनी।।८।। 

कोण्या ग्रहाची कैसी स्थिति। कैसी पूजा कैसी मती।।

कोण रूप कैसी गती। ऐसें यथार्थ सांगावें।।९।।

ऐसें ऐकतांचि उत्तर। पंडित सरसावलें समोर।।

काढोनी पुस्तकांचा संभार। बोलती ते यथामतींने।।१०।।

प्रथम एक पंडित बोलिला। रविग्रह तो असे भला।।

जो लागे त्याच्या उपासनेला। त्यासी ग्रहपीडा न बाधे।।११।।

रवि तो सूर्यनारायण। जे नर झाले तत्परायणा।।

त्यांचीं विघ्नें होती निरसन। महासामर्थ्य रवीचें।।१२।।

आधि -व्याधि दरिद्र। स्मरणमात्रेंचि होती दूर।।

मग उपासना करी जो नर। चिंतिले अर्थ सर्व पुरती।।१३।।

रवि तो मुख्य दैवत। त्याविणा सर्वही जाणा व्यर्थ।।

नवग्रह आज्ञा पाळीत। ऐसा श्रेष्ठ ग्रह हा।।१४।। 

ऐकतां रवीची वार्ता। आणि त्या इतर ग्रहांची कथा।।

तेणें निवारे सर्व व्यथा। ऐसे नवग्रहही समर्थ।।१५।।

परी रवि असे महाबळी। सर्वांमाजी अतुर्बळी।।

प्रत्यक्ष दिसतो नेत्रकमलीं। तो हा सूर्यनारायण।।१६।।

तंव दूसरा पंडित बोलत। सोमसी असे बळ अभ्दुत।।

तो माळी ऐसें म्हणवित। वनस्पति पोषितसे।।१७।।

जयाचें आराध्य दैवत। शिव सांब कैलासनाथ।।

त्याच्या भाळीं हा विलसत। म्हणोनि श्रेष्ठ जाणावा।।१८।।

चंद्र वर्षे अमृतास। तृप्त करी सर्व देवांस।।

निशिराज महारूपस। षोडश कळा जयासी।।१९।। 

तो न गांजी कोणासी। अति सौख्यदाता सर्वांसी।।

सदासर्वदा निर्मळ मानसीं। धन्य जयाचें पूजन।।२०।।

मग तिसरा पंडित बोलत। ऐक राया सुनिश्चित।।

मंगळ तो महासमर्थ। कथा ऐका तयाची।।२१।। 

मंगळग्रह हा महाक्रूर। जैसी कां ते खड्गाची धार।। 

तयाचा न कळे पार। सर्व ग्रहांमाजी वरिष्ठ हा।।२२। 

मंगळग्रह सोनार। क्रूरता जयाची अति थोर।।

 परी तो पूजकांसी कृपाकर। मंगळ करी सर्वदा।।२३।। 

गर्व धरुनि पूजा न करिती। मग तो खवळे उग्रमूर्ती।। 

विलाया जाय संतति -संपत्ति। शेवटीं नाश करी जीवित्वाचा।।२४।। 

तोचि पूजकांसी सदा प्रसन्न। सर्व अर्थ करी पावन।।

सर्व दुःख निरसून।  अंतर्बाह्य संरक्षी।।२५।। 

तंव बोले चवथा पंडित। बुध असे महाबळवंत।। 

बुधाचा प्रताप अभ्दुत। सर्व ग्रहांमाजी।।२६।। 

बुध जातीचा असे वाणी। नवग्रहांत शिरोमणी।। 

विघ्नें नासती तयाच्या पूजनीं। सर्वानंद प्राप्त करी।।२७।।

बुध ज्यावरी कृपा करी। लक्ष्मीवंत त्यासी करी।। 

ऐसा तो महापरोपकारी। बुधग्रह जाणिजे।।२८।। 

बुधग्रह आहे ज्यास नीट। त्यास सर्व मार्ग सुचती सुभट।।

कोणत्या कार्यासही तूट। तो न करी कल्पांतीं।।२९।। 

बुधाची बुद्धि भारी। कोणासी निष्ठुरता तो न करी।। 

संसारचिंता हरी। प्राणिमात्राची सर्वथा।।३०।। 

मग बोले पांचवा पंडित। गुरुचें सामर्थ्य असे अभ्दुत।। 

गुरु तो श्रेष्ठ सर्वांत। इंद्रादि देवां समस्तां।।३१।। 

गुरुज्ञानाचा न कळे पार। भाविकांसी तो करुणाकर।। 

कर्माकर्मांचा करी चूर। भवभयव्यथेसी।।३२।। 

दुःख आणि दारिद्रय रोग। स्मरणमात्रें होतीं भंग।। 

नवग्रहांत महायोग्य। ऐसा गुरु जाणिजे।।३३।। 

गुरु जातीचा असे ब्राह्मण। सर्वांत श्रेष्ठ असे वर्ण।।

 सर्व देव करती मान्य। गुरुवचनासी।।३४।। 

गुरु असे ज्ञानाचा पूरा। तयाच्या साम्यासी नसे दूसरा।।

 त्यापुढें नुरेचि थारा। कल्पनेचा कदाही।।३५।। 

म्हणोनि करितां गुरुसेवा। मग ग्रहांचा कोण केवा।।

गुरु सर्वभावें भजावा। तेणें संतोष सर्व ग्रहांसी।।३६।।

शिव करी गुरुपूजनासी। तेथें पाड काय इतरांसी।।

ऐसा श्रेष्ठ जो सर्वांसी। आगमागम।।३७।।

तंव सहावा पंडित बोलिला। शुक्र ग्रह असे बहु भला।।

जेणें राक्षसां उपकार केला। संजीवनीमंत्रेंकरोनी।।३८।। 

शुक्र गुरु तो दैत्यांचा। त्रिभुवनीं धाक वाहती जयाचा।।

पार न काळे सामर्थ्याचा। म्हणोनि श्रेष्ठ तो।।३९।। 

शुक्राची शक्ति आहे फार। तो करी कर्माकर्मांचा चूर।।

विघ्नें पळती दूरच्या दूर। शुक्राचें नाम घेतां।।४०।।

शुक्रपूजनीं जे तत्पर। त्यांच्या शौर्यासी नाहीं पारावार।।

जो दिव्यदेही निरंतर। एकाक्ष तो।।४१।। 

आधि व्याधि दुःख दरिद्र। स्मरणमात्रेंचि होती दूर।।

सर्वाभिष्ट परिकर। प्राप्त करी पूजकां।।४२।।

नवग्रहांत शिरोमणी। ज्याचा महिमा वर्णिजे पुराणीं।।

मान्यता श्रेष्ठ सर्वांहूनी। शुक्राची असे जाण पां।।४३।।

ऐसे हे सहा ग्रह ऐकोनि राजा। तर्जनी मस्तक डोलवी वोजा।।

म्हणे उत्तम कथिलें काजा। अखंडित यांतें स्मरावें।।४४।।

आणिक ग्रह राहिले कोण। सांगा पंडित हो निवडून।।

कैसीं त्यांची नामें खुण। त्या मुर्तीसी बोलिजे।।४५।।

मग संकेतें बोलती पंडित। राहु आणि दुसरा केतु।।

हे उभयतां अति अभ्दुत। दैत्यकुळींचे असती।।४६।। 

मातंग जातीचे दोन्ही। दुष्ट क्रिया म्हणवोनी।। 

त्यांच्या दर्शनें चंद्र -सूर्य गगनीं। चळचळां कांपती।।४७।। 

राहु पीडी चंद्रासि। केतु तो सूर्यासी।।

ग्रहण बोलिजे तयासी। प्रत्यक्ष दॄष्टीसी दिसतसे।।४८।। 

प्राणिमात्र सर्व जन। त्यांसी न सांडिती पीडे विण।।

परी के लिया पजनस्मरण। किंचित पीडा करिताती।।४९।। 

राहु महापीडक अनिवार माया।  तद्रूपचि केतु जाण राया।। 

उभयतांची एक चर्या। पूजनस्मरणें संतोषती।।५०।। 

सर्व ग्रहांपरिस अतिक्रूर। जनासी पीडा करिती फार।। 

म्हणोनि पूजन स्मरण निरंतर। राहु -केतूंचे करावें।।५१।। 

तंव नववा पंडित बोलत। शनिग्रह श्रेष्ठ अवघ्यांत।। 

बलाढ्य होय अति अभ्दुत। न कळे कळा तयाची।।५२।। 

तो ज्यावरी करी कृपा। त्यासी सर्व मार्ग असे सोपा।। 

गृहदिक्पाळांवरी छापा। तया शनिग्रहाचा।।५३।।

ज्यावरी तो कोपसी चढे। तयावरी नाना विघ्नें येती रोकडे।। 

तयाचा संसार बिघडे। न राहे कल्पांतीं।।५४।। 

शनिदेव महाक्रोधी। ज्याचा पराजय नोहे युद्धीं।। 

देव -दानवां त्रिशुद्धी। दुःखदाता शनिदेव।।५५।। 

जो कां भाविका सज्ञान नर। या ग्रहाचा करी -आदर।। 

पूजन स्मरण निरंतर। त्यावरी कृपा करी शनिदेव।।५६।। 

शनैश्चराची मूर्ति काळी। तो जातीचा होय तेली।।

चरण पंगु सूरत चांगली। पूजा करी काळभैरवाची।।५७।। 

त्याची दॄष्टि पडे जयावर। करी तयाचा चकनाचूर।।

अथवा कृपा करी जयावर। तयासी सर्व आनंद प्राप्त होय।।५८।।  

दॄष्टीचा ऐका चमत्कार। जन्मला जेव्हां शनैश्चर।।

तेव्हां दॄष्टि पडली पित्यावर। तेणें कुष्ठ भरला सर्वांगी।।५९।। 

पित्याच्या रथीं होता जो सारथी। तो पांगुळ झाला निश्चितीं।।

अश्वांचिया नेत्रांप्रति। अंधत्व आलें तत्क्षणीं।।६०।। 

तेव्हां त्यांनी उपाय केले फार। तरी गुण न येचि अणुमात्र।।

जंव दॄष्टि फिरवी शनैश्चर। तंव तिघेही आरोग्य जाहले।।६१।। 

ऐसें ऐकतां राजा विक्रम। हांसुनि बोले सप्रेम।।

म्हणे पुत्र जन्मोनियां काय काम। ऐसा अपवित्र जो।।६२। 

तो पुत्र नव्हे केवळ वैरी।जो उपजतांच ऐसें करी 

पुढें तो काय न करी। सांगा पंडित हो।।६३।। 

ऐसें बोलिला हांसोन। करीं टाळी वाजवी गर्जोन।।

 सभेसी विनोदवचन। म्हणे हा पुत्र कैसा हो।।६४।। 

ऐसें बोलतां ते अवसरीं। कैसी वर्तली नवलपरी।। 

ती ऐकावी आतां चतुरीं। चित्त देऊनियां।।६५।। 

त्या समयीं शनिदेव विमानीं। जात होते बैसोनि।। 

रायाचें वाक्य ऐकतां तत्क्षणीं। विमान खाली उतरलें।।६६।। 

अकस्मात येऊनियां सभेंत। बैसले तेव्हां विमानासहित।। 

तंव पाहले झाले सभापंडित। म्हणती आले शनिदेव।।६७।। 

मग राव उठे झडकरोनी। जाऊनि नमन करी चरणीं।। 

तंव टाकिला झिडकारोनी। शनिदेवानें।।६८।।

म्हणे तूं राजा ऐसा मस्त। टवाळी करिसी अभ्दुत।।

याचा चमत्कार क्षणांत। दाविन पाहें आतांची।।६९।। 

तूं फार करितोसी टवाळी। नसतीच चढविली कळी।। 

तरी कन्याराशिस मुळीं। तुजला ग्रह मी आलों।।७०।। 

तरी आतां पाहें माझा चमत्कार। तूं नको करूं गर्व फार।। 

ऐसें वदोनी अति सत्वर। विमानरूढ पैं झाला।।७१।। 

तंव तो राव लागे चरणासी। म्हणे कृपा करावी दिनासी।। 

अन्याय घालीं पोटासिं। कृपाळुवा शनिदेव।।७२।। 

तरी तो न मानीच शनिदेव। म्हणे मी तुज दाखवीन अनुभव।। 

तेव्हां मनीं खिन्न जाहला राव चिंता मानसीं फार करी।।७३।। 

मग म्हणतसे पंडितांना। आम्हीं महाग्रह उगाचि छळिला।।

तो आतां कष्टविल आम्हांला। तरी कैसें करावें आतां।।७४।। 

जें जे पुढें होणार। म्हणोनि बुद्धि सुचे तदनुसार।। 

तरी जें असेल लिखिताक्षर। तैसें आतां होईल।।७५।। 

राव दिलगीर जाहला मानसीं। विसर्जन करी सभेसी।।

 जाता जाहला मंदिरासी। कांहीं अंतरी सुचेना।।७६।। 

करूनियां संध्यास्नान। मग करितसे भोजन।।

 तदनंतर करिता झाला शयन। नावेक पलंगावरी।।७७।। 

ऐसें करितां एक मास। जाहला राया विक्रमास।। 

मग काय वर्तलें त्या कथेस। तेंचि आतां ऐकिजे।।७८।। 

राया विक्रमासी आला शनि। बारावा अति क्रूर स्थानीं।। 

जेणें त्रासिलें बहुत प्राणी। अभाविकां पीडितसे।।७९।। 

तेव्हां पंडित बोलती वाचे। राया पूजन करीं शनिग्रहाचें।। 

साडेसात वर्षें नेमाचें। सामर्थ्य आहे जाणीजे।।८०।। 

तुम्ही विनोदें हांसला शनीसी। तरी तो कष्टवील तुम्हांसी।। 

जो कां गांजितो त्रैलोक्यासी। तोचि हा महाग्रह जाणिजे।।८१।। 

चित्त करोनियां एकाग्र। ऐकावा पुजेचा प्रकार।। 

जेणें करोनि शनैश्चर। कृपा करील तुम्हांवरी।।८२।। 

प्रथम करोनि औषधिस्नान। मग करावें प्रतिमेचें पूजन।। 

अश्वाचा नाल घेऊन। त्याची प्रतिमा करावी।।८३।। 

शास्त्रविधि पूजा निर्धार। मग तैलअभिषेक कर।। 

मृत्तिकेच्या कुंभावर। त्याची स्थापना करावी।।८४।। 

स्थापना झलिया जाण। पूगीफल ब्राह्मणासी देऊन।। 

तेवीस सहस्त्र जप संपूर्ण। यथासांग करावा।।८५।। 

जपसंख्या जाहलियावरी। चतुर्थांश हवन करी।।

 हवन झलियाउपरी। दानें करावीं शनीची।।८६।। 

मग जपकर्त्या ब्राह्मणासी। शनैश्चररूप मानुनि त्यासी।। 

दक्षिणा देऊनि पूजेसी। प्रसन्नचि करावें।।८७।। 

मग करावें ब्राह्मणभोजन। यथाशक्ति द्यावें दान।। 

ब्राह्मण तृप्त होतां पूर्ण। संतोष पावे शनिदेव।।८८।। 

जेवीं रक्षी बाळकासी माता। तैसें रक्षी निजभक्तां।। 

पंडित म्हणती राया समर्था। गोष्टी एवढी ऐकावी।।८९।। 

राजा म्हणे पंडितांना। शनि न मानिच आम्हांला।। 

तोचि माता पिता वहीला। रक्षी तोचि पैं जाणा।।९०।। 

मग बोले विक्रम पंडितांसि। तुम्हीं जावें आपुल्या गृहासी।। 

जें होणार असेल तें निश्चयेंसी। घडून येईल न टळेची।।९१।। 

ऐसें बोलोनियां उत्तर। काय जाहला चमत्कार।। 

चित्त करोनियां स्थिर। श्रवण करावें सर्वांही।।९२।। 

असो मग कोणे एके दिवशीं। दोन प्रहरांच्या समयासी।।

 कारावानवेषें उज्जयिनीसी। घोडे विकावया आले शनिदेव।।९३।। 

रूप पालटोनी आपुलें। वारु विकावया आले आणिलें।।

 तंव तेथें गिऱ्हाईक पाटलें। रावही आला त्या स्थानीं।।९४।। 

तेव्हां किंमत पुसतसे रावो। तयासी म्हणे शनिदेवो।। 

वारु फिरवूनि पहा हो। मग कळेल मोल तयाचे।।९५।। 

तेव्हां सारंगा वारु राव आणवीत। चबुकस्वारासी वरी बैसवीत।।

 तेणें घोडा फिरविला चौगगनांत। अति उत्तम फिरतसे।।९६।। 

तंव दूसरा घोडा अबलख। त्याचें मोल रूपये लक्ष एक।। 

तो सोडूनि तात्काळिक। आणिला विक्रमापाशीं।।९७।। 

तंव त्या सौदागरें काय केलें। राया विक्रमांसीच बैसविलें।।

घोडा फिरवितां राव बोले। अति उत्तम फिरतसे।।९८।। 

तंव त्या घोड्यासी कोरडा मारितां। घोडा उडाला गगनपंथा।। 

पवनवेगें वारु जातां। महावनांत ते समयीं।।९९।। 

अधिक कोरडा मारितां। तों तों अधिक जाय पंथा।।

 घोर अवस्था होय चित्तां। केवीं वर्तलें म्हणवोनी।।१००।। 

दूरदेशीं अतिउजाडी। जेथें घोर वन महाझाडी।।

तेथें नदीच्या पैलथडीं। घोडा जाऊनि उतरला।।१०१।। 

तेथें राव उतरला खालीं। तंव नवलपरी वर्तली।। 

वारु नाहीं नदी गुप्त झाली। झाडां -झुडुपांसहित।।१०२।। 

तेव्हां आश्चर्य वाटलें विक्रमासी। म्हणे ईश्वरी गति नकळे कोणासी।। 

वारु आणि वनासी। काय विचार पैं जाहला।।१०३।। 

तंव अस्तासी पावला वासरमणी। अंधकार प्रवर्तला रजनीं।।

 पुढें मार्ग न दिसे नयनीं। मग तेथेंचि पहुडला।।१०४।। 

चार प्रहार गेलियावरी। उदयासी आला तमारी।।

 मग तो एका नगराचा मार्ग धरी। राजा विक्रम आपण।।१०५।। 

तंव तेथोनी चार योजनें दुरी। तामलींदा नाम नगरी।।

 तेथें जाता झाला ते अवसरीं। हळू हळू पोहोंचला।।१०६।। 

इकडे उज्जयिनीची कथा राहिली। ती आतां पाहिजे श्रवण केली।। 

नगरजनें वाट पहिली। चार प्रहर रायाची।।१०७।। 

तेव्हां सौदागर म्हणे प्रधानासी। वारु द्यावा आमुचा आम्हांसी।। 

कोणीकडे नेलें वारुसी। राया विक्रमानें।।१०८।। 

तंव पाहले झालें नगराबाहेर। कोसीं दो कोस चार।।

 परी कोठें न दिसे राजेश्वर। मग चिंता प्रवर्तली।।१०९।। 

तेव्हां सौदागर म्हणे प्रधानासी। सत्वर शोधोनि आणा रायासी।। 

नाहीं तरी आम्हांसी। पैका द्यावा वारुचा।।११०।। 

तेव्हां प्रधानासी पडली चिंता। मनीं म्हणे कैसें करावें आतां।।

 रायाचा शोध न लागे तत्त्वतां। सौदागरें अडविलें।।१११।। 

मग प्रधानें काय केलें। सौदागरासी बोलविलें।। 

म्हणे वारुचें मोल काय वहिलें। तें सांग आम्हांसी।।११२।। 

तयानें मोल सांगतांचि झडकरी। मग पैका घातला तयाचे पदरीं।।

 तेव्हां प्रधानासी पुसोनि सत्वरी। जाता झाला शनिदेव।।११३।। 

सौदागर नेलियापाठीं। मागें काय वर्तली गोष्टी।। 

नगरजन सर्व होती कष्टी। देशपट्टणें धुंडिलीं।।११४।। 

नगरीं झाली ऐसी परी। इकडे राजा विक्रम काय करी।।

तया तामलिंदापुर नगरीं। ग्रामामाजीं प्रवेशला।।११५।। 

तंव तेथें व्यवहारी सावकार। जातीचा वैश्य धनाढ्य थोर।।

 तेव्हां तयाचें दुकानावर। राजा नावेक स्थिरावला।।११६।। 

सावकराचे दुकानीं। विक्री होतसे द्विगुणी।। 

त्यानें भला माणूस जाणोनि। आदर केला तयाचा।।११७।। 

मग व्यवहारी बोले भावें। तुम्हीं आतां मुखमार्जन करावें।। 

जातीचे कोण आम्हां सांगावें। नाम ग्राम तुमचें पैं।।११८।। 

राजा म्हणे तया वैश्यासी। आम्ही क्षत्रिय असों परियेसीं।। 

आमुचा मुलुख दूर देशीं। क्षण एक येथें उतरलों।।११९।। 

मग सावकारें करविला पाक। अति उत्तम षड्रसादिक।।

 भात पुऱ्या सांडगे देख। करविले बहुत प्रकार।।१२०।। 

मग तो वैश्य म्हणे क्षत्रिया। उठा वेगीं जेवावया।। 

भोजन करोनि लवलाह्या। मग जावें सुखरूप।।१२१।। 

मग राव करी संध्यास्नान। तदनंतर सारिता झाला भोजन।।

 उत्तम प्रकारचें पक्वान्न। सेवुनि तृप्ति पावला।।१२२।। 

तेव्हां वैश्य म्हणे क्षत्रियासी। सत्य सांगावे आम्हासी।। 

मग विक्रामें कथिलें तयासी। तेव्हां तो निज अंतरी समजला।।१२३।। 

आतां त्या सावकाराची कन्यका। नाम तिचें अलोलिका।।

 तिचा पण हाचि देखा। इच्छिला वर वरावा।।१२४।। 

परी तिसी न मिळे इच्छावर। वैश्य शोध करी निरंतर।।

 तंव हा विक्रमराजा परिकर। म्हणे यासी द्यावी कुमारिका।।१२५।। 

तेव्हां तो बोले कुमारिकेसी। बाई उत्तम वर आणिला तुजसी।। 

आतां तूं माळ घालीं यासी। न करी अनमान।।१२६।। 

हा स्वरूपें आहे सुंदर। बत्तीस -लक्षणी परिकर।।

 हा भाग्यवंत जाण वर। यासी वरीं कुमारिके।।१२७।। 

तेव्हां कुमारी बोले पित्यासी। तुम्ही बहुत वर्णितां यासी।।

 परी न भरतां मम मानसीं। तंव न वरीं त्यासी निर्धारें।।१२८।। 

आज पाहिन याचें लक्षण। कैसें चातुर्य काय ज्ञान।।

 भाषणावरुनि प्रमाण। सर्व काळों येईल।।१२९।। 

ऐसें वदतां झाली सांज। तंव अस्तासी गेला भानुराज।। 

पित्यासी म्हणे महाराज। पांथिकासी पाठवावें।।१३०।। 

मग वैश्य म्हणे क्षत्रियासी। जावें निद्रा करावयासी।। 

अति रम्य चित्रशाळेसी। तिथें सर्व विदित होईल।।१३१।। 

मग तो विक्रम उठोनी चालिला। जेथें होती चित्रशाळा।। 

तेथें हंस मयूर कोकिळा।। नाना प्रकारचे लेपिले।।१३२।। 

चित्रें रेखिलीं बहुकुशलता। वारु आणि गजरथा।। 

चित्रकारें चित्रें रेखितां। आळस कांही न केला।।१३३।। 

पुढें पाहे राजा नयनीं तंव अपूर्व मंचक देखिला तत्क्षणीं।।

 त्यावर पासोडा लेप दोन्ही। आंथरुण घातलेंसे।।१३४।। 

रत्नखचित सुरंग पलंग। त्यावर नाना परीचे रंग।। 

जाई जुई पुष्पें सुरंग। सेज केली अतिनिगुति।।१३५।।

वरती लोंबती मोतियांचे घड। चांदवा करितसे फड़फड़।।

 समया जळती धडधड। चतुष्कोणीं चार पैं।।१३६।। 

ऐसें पाहुनि राव झाला चकित। म्हणे न कळे काय आहे वृत्तांत।। 

हा कोण देश कोणती गत। होईल ती कळेना।।१३७।। 

कर्मच्या गती असती गहना। जें जें होणार तें कदा चुकेना।। 

तें तें भोगिल्यावीण सुटेना। देवादिकां सर्वांसी।।१३८।। 

तरी हें शनिदेवाचें छळन। त्यानें ही माया रचिली जाण।। 

आतां होणार तें होवो आपण। जो सर्वांसी पीडितसे।।१३९।। 

ऐसा मनीं करोनि विचार। मग निद्रा करी राजेश्वर।। 

तया पंलगीं साचार। सावधान निजे अंतरीं।।१४०।। 

नाना परिचे करी विचार। बुद्धीचे तरंग अपार।। 

म्हणोनि निद्रा न ये साचार। परी मुख आच्छादन केलेंसे।।१४१।। 

रायें केली ऐसी परी। मग वैश्यकन्या काय करी।। 

पंचारती घेऊनि करीं। आली रंगमहालाकारणें।।१४२।। 

तिनें  केला सर्व श्रृंगार। गळा शोभती मोतियांचे हार।। 

केशर कस्तूरी कर्पूर। तीं सुगंधद्रव्यें आणिलीं पैं।।१४३।। 

पायीं पैंजण नुपूरें। तीं झणत्कार करिती गजरें।। 

पदकांसी जडिले दिव्य हिरे। त्यांचें तेज फांकतसे।।१४४।। 

ती जैसी पुतळीच केवळ। बत्तीस -लक्षणी वेल्हाळ।। 

मृगनयनी विशाळ भाळ। येऊनि उभी ठाकली।।१४५।। 

राव निद्रेचें मिष करुन। पलंगी पहुडलासे जाण।।

 तो न उठे ऐसें जाणोन। मग कुमारी काय करी।।१४६।। 

चंदनपात्र घेऊनि हातीं। अलोलिका होय शिंपीति।। 

तरी जागा न होय नृपती। कोणेही प्रकारें करोनी।।१४७।। 

ऐसीं एक प्रहार झाली कष्टी। जागा न होय मग झाली हिंपुटी। 

मौक्तिकहार ठेवुनि खूंटी। निद्रा करी सचिंत।।१४८।। 

तंव निद्रा आली कामिनिसि। मग राव उघडितां मुखासी।

 विचार करी निजमानसीं। मी सत्त्वधीर म्हणवितो।।१४९।। 

परोपकारी माझें मन। पापास भितों रात्रंदिन।। 

ही तव कन्या असे जाण। कैसें भाषण करावें।।१५०।। 

ऐसा विचार करी निजमानसीं। तंव तो निद्राभर कामिनिसि।।

 मग पाहता झाला चित्रासी। तेथे अपूर्व वर्तलें।।१५१।। 

चित्रींचा हंस निर्जीव। परी तो काय करिता झाला लाघव।। 

खालीं उतरोनी सावयव। हाराचीं मोत्यें भक्षितसे।।१५२।। 

राव पाहुनि झाला चकित। मनीं म्हणें हे आश्चर्यमात।। 

परी ही गोष्ट अनुचित। दुःखदायक आपणासी।।१५३।। 

जरी हार घ्यावा काढूनि। तरी ब्रीद जातसे निरसुनि।। 

परासी दुःख न द्यावें म्हणोनी। ब्रीद असे माझें हें।।१५४।। 

परंतु गोष्टी हे अघटित। आपणासी दुःख होईल  प्राप्त।।

 ग्रहदशेचें मान सत्य। परी हार न काढावा।।१५५।। 

ऐसा निश्चय रायें केला। इकडे सर्व हार हंसे गिळीला।।

 तें पाहुनि राव निजला। कुमारिकेशेजारीं।।१५६।। 

तंव उगवला असे दिन। कुमारी उठली खडबडोन।।

 म्हणे हा पित्यानें वर आणिला जाण। अतिमूर्ख नपुंसक।।१५७।। 

मनीं क्रोध आला भारी उठोनी चलिली झडकरी।। 

तंव ती हार पाहे खुंटीवरी। तेथें कांहीं दिसेना।।१५८।। 

हार न देखे कुमारिका। ती म्हणे पांथिका अविवेका।।

 हार घेवोनि महाठका। निद्रा केली सुखरूप।।१५९।। 

तरी हार देई माझा झडकरी। तुज पचणार नाहीं चोरी।। 

ऐसिया गोष्टीनें तुझी थोरी। राहणार नाहीं तत्त्वतां।।१६०।। 

तरी हार दे माझा मजप्रती। मग त्वां जावें आपुल्या पंथीं।। 

याची चर्चा झलिया निश्चितीं। नाश होईल शरीराचा।।१६१।। 

तंव पांथस्थ म्हणे कुमारिका। हार नाहीं आम्हांसी ठाऊका।। 

येथें निद्रा केली म्हणोनि देखा। आळ घालिसि आम्हांवरी।।१६२।। 

तंव ती कुमारी संतप्त मनीं। पित्यासी सांगे तत्क्षणीं।। 

म्हणे इच्छावर आणिला मजलागुनी। त्याचें लक्षण अति उत्तम।।१६३।। 

तुम्हीं ठक चोर आणिला घरा। तो तस्करविद्येमाजीं पुरा।।

 तेणें चोरिलें माझिया हारा। तरी तो मागुनि घेईजे।।१६४।। 

तेव्हां वैश्य म्हणे पांथिकासी। तुज विश्राम दिधला कासयासी।। 

तरी तूं कां हार घेऊनि बैसलासी। बरा झालासी उतराई।।१६५।। 

उत्तम भोजन दिधलें देखा। आणि ही अर्पिली निजकन्यका।। 

ऐसें असतां महामूर्खा। हे काय आचरलासी।।१६६।। 

बराच फेडिला उपकार। देईं माझे कन्येचा हार।।

 मग त्वां जावें सत्वर। आलिया पंथें।।१६७।। 

तंव राव म्हणे सावकारासी। तुमचा हार नाहीं मजपाशीं।।

 हा कर्मभोग ओढवला सायासीं। नसतेंच विघ्न हें।।१६८।। 

तेव्हां सावकारासी क्रोध आला। तेणें सेवकांसी हुकुम केला।। 

बंधन करावें या तस्कराला। मार द्यावा निष्ठुरपणें।।१६९।। 

यासी मारिल्यावांचून। हार हस्तगत न होय जाण।।

 हा पक्का चोर म्हणोन। ऐसें लक्षण पैं याचें।।१७०।। 

मग त्या सेवकीं धांवोनी सत्वर। बांधिला तो मुशाफर।।

 अतिशय दिधला मार। दया नाहीं अंतरीं।।१७१।। 

ते मारिति अति निष्ठुर होऊनि। दया नाहीं अंतःकरणीं।।

 मारा मारा ऐशा वचनीं। वैश्य तेव्हां बोलत।।१७२।।

मार -मारून केला जर्जर। म्हणती हार देई गा सत्वर।।

महानिर्दय निष्ठुर। दया न ये कोणासि।।१७३।। 

मग राव म्हणे वैश्यासी। हार नाहीं गा आम्हांपाशीं।। 

कष्टवितोसी शरीरासी। वृथाचि जाण कासया।।१७४।। 

तो वैश्य म्हणे सेवकांना। हा पक्का तस्कर नव्हे भला।।

अद्यापि नाहीं कबूल झाला। मार खातो निःशंक।।१७५।। 

मग तो व्यवहारी काय करी। जाऊनि रायाचे दरबारीं।।

राया चंद्रसेना श्रुत करी। सांगे सकळ वर्तमान।।१७६।। 

तें ऐकोनि राजेश्वर। म्हणे आणावा तो तस्कर।। 

ऐसे वाचन ऐकोनी सत्वर। सेवकांची मांदी धांवली।।१७७।। 

त्यांनीं बंधन करोनि विक्रमासी। आणिते जाहले रायपाशीं।।

 मग प्रणिपात केला वेगेंसीं। सन्मुख उभा राहिला।।१७८।। 

मग राव बोले पांथिकासी। हार आहे कीं तुजपाशीं।।

 तो देईं आतां सावकारासी। प्राण वांचवीं आपुला।।१७९।। 

तंव विक्रम बोले वचना। ऐकें राया चंद्रसेना।। 

हार घेतला नाहीं जाणा। असत्य न बोलें कदाही।।१८०।। 

हाराचा सांगावा विचार। तरी वृथा म्हणाल तुम्ही सर्वत्र।।

 न घडे तोचि विचार। घडला असे समर्था।।१८१।।

आम्हांसी ग्रह नाहीं सानुकूळ। नसतीच उत्पन्न होते कळ। 

त्याची काय करुनि हळहळ। होणार तें होतसे।।१८२।। 

बरें चोरी न करावी परंतु केली। परी आतां पाहिजे क्षमा केली।।

 सर्व अपराध पोटीं घाली। कृपा करीं महाराजा।।१८३।। 

ऐसें वचन ऐकतां राजेश्वर। क्रोधें संतप्त जैसा खदिरांगार।। 

गर्जना करोनि सत्वर। काय बोलता जाहला।।१८४।। 

सेवकांसी म्हणजे उठा सत्वर। तोडा याचे चरण कर।

 टाकुनि द्या नगराबाहेर।अन्न उदक न द्यावें।।१८५।।  

ऐसा रायाचा अविवेक। मूढमति ते सकळिक।।

 नाहीं कोणीही भाविक। यथा राजा तथा प्रजा।।१८६।। 

तरी रायाचे मुखीं शनेश्वर। सुचू न दे कांहीं विचार।।

तोचि पीडा करी वारंवार। दुःख देत रायातें।।१८७।। 

ऐसें चंद्रसेनाचें उत्तर ऐकोनी। सेवक उठिले झडकरोनी।। 

राया विक्रमासी चालिले घेऊनी। तया नगराबाहेर।।१८८।। 

दूर नगरप्रदेशीं। तोडिते झाले करचरणांसी।। 

अश्रु यती नयनांसी। महासंकट ओढवलें।।१८९।। 

तेव्हां हात -पाय चारी। तोडिले त्याचे निष्ठुरीं।।

 टाकोनि ग्रामाबाहेरी। सेवक गेले सांगावया।।१९०।। 

मग राजा पुसे सेवकाला। तो मेला किंवा वांचला।। 

त्याचा प्राण कोठें उरला। ऐसें बोले उत्तर।।१९१।। 

मग सेवक म्हणती महाराज। सत्वरचि प्राण जाईल सहज।। 

करचरणांविण आत्मराज। कैसें सुख पावेल।।१९२।। 

खाण्याविण हैराण। शरीरीं पीडा अतिदारुण।।

 तळमळ करी रात्रंदिन। महादुःख होतसे।।१९३।। 

इकडे राजा विक्रम काय करी। हात -पायांचें दुःख भारी।।

 जैसा मत्स्य तळमळ करी। उदकाविण जाण पां।।१९४।। 

कोणी येताती वाटसरु। त्यांसी पाहतां येत गहिंवरू।।

 ते म्हणती हे परमेश्वरु। कोण कष्ट या प्राणियासी।।१९५।। 

जरी अन्न उदक कोणीं द्यावें। तरी रायें त्यासी दंडावें।।

 ताडन बंधन करावें। ऐसा धाक जनांसी।।१९६।। 

ऐसें असतां जाहला एक मास। अतिदुःख होतसे विक्रमास।। 

परी दया न ये कोणास। ग्रहदशा म्हणवोनी।।१९७।। 

राव विक्रम शोक करी। म्हणे ग्रहा समर्था कृपा करीं।।

 निष्ठुर न व्हावें निजांतरीं। दया करीं दिनासी।।१९८।। 

ऐसी करुणा भाकितां तये वेळीं। मग शनैश्चरासी कृपा आली।।

 म्हणे त्याच्या सत्त्वाची न कळे खोली। सीमा झाली तत्त्वतां।।१९९।। 

तरी आतां पीडूं नये तत्त्वतां। केली रायाच्या मनीं प्रेरकता।। 

चंद्रसेन द्रवला चित्ता। म्हणे अन्न -उदक देत जावें।।२००।। 

अन्न -उदकाची आज्ञा जाहली। नगरजनांसि दया आली।। 

ते आणोनि देती नित्यकाळीं। कनवाळु कृपाळु जन।।२०१।। 

अन्न -उदका होतसे सुकाळ। परंतु कर -चरणांविण पांगुळ।।

 त्या अतिदुःखें होतसे विव्हळ। चैन न पडे क्षणभरी।।२०२।। 

ऐशीं क्रमिलीं वर्षें दोन। तोंवरी दुःख सोशिलें अति दारुण।। 

ऐसें कर्माचें विंदान। भोगिल्याविण सुटेना।।२०३।। 

तंव कोणे एके दिवशीं। तेलीण बैसोनि शिबिके सी।

 जात होती सासुऱ्यासी। तया मार्गानें।।२०४।। 

त्या टेलिणीचें माहेर। होतें उज्जयिनीनगर।। 

सासरे तामलिंदापुर। ऐसें श्रोतीं जाणावें।।२०५।। 

तेथील तेलियानें उज्जयिनीहुनी। स्नुषा आणिली मूळ करोनी।। 

तंव ती त्या मार्गावरोनी। येत होतीं उभयतां।।२०६।। 

तेव्हां त्या तेलिणीनें। पाहिले विक्रमाकारणें।।

 मनीं म्हणे राजा कोणें। आणिलासे या स्थानीं।।२०७।।

मग ती खाली उतरोनि कामिनी। लागली विक्रमाच्या चरणीं।। 

म्हणे हाता -पायांवांचोनी। कोण अवस्था शरीराची।।२०८।। 

राजा अवलोकि तेलिणीकडे। बाई विजयी असोत तुझे चुडे।। 

काय वृत्तांत ग्रामाकडे। तो सर्व सांग मज।।२०९।।

मग कामिनी म्हणे अहो राया। सर्व सुखी आहेत करुणालया।।

परी हे अवस्था तुमच्या देहा। काय म्हणोनि जाहली।।२१०।। 

राव म्हणे ऐक पतिव्रते। हे कर्मभोग जाण निरुतें।। 

ग्रहदशा फिरली मातें। हें कर्तुत्व देवाचें।।२११।। 

मग सर्व सांगितलें तीयेसी। जें जें वर्तलें ज्या समयासी।। 

तें ऐकोनि म्हणे विक्रमासी। धन्य धन्य रे विधातिया।।२१२।।

मग ती तेलिण काय करीत। रायासी शिबिकेमाजी बैसवीत।। 

आपुल्या गृहासी घेऊनि जात। अत्यादरें करोनियां।।२१३।। 

तंव तो तेली कांपे थरथरां। म्हणे हें विघ्न आणिलें घरा।।

 जरी श्रुत होईल राजेश्वरा। मग कैसें करावें आपण।।२१४।। 

तेव्हां सुन म्हणे श्वशुरासी। हा विक्रमादित्य निश्चयेंसी।। 

धर्मनीति राज्य करी उज्जयिनीसी। परी हे दशा ग्रहाची।।२१५।। 

हा माळवा देशीचा धनी। जैसा उकिरडयांत पडला चिंतामणि। 

दैवें लाधला आपणालागूनी। म्हणोनि आला गृहातें।।२१६।। 

मग तो तेली काय करी। राया चंद्रसेना श्रुत करी।। 

आपण तस्कर टाकीला जो बाहेरी। हस्तपाद खंडोनी।।२१७।। 

जरी आज्ञा होईल राजेश्वरा। तरी आणिन तया तस्करा।।

 दया उपजली मम अंतरा। दीन अनाथ म्हणवोनी।।२१८।। 

मग राव म्हणे भला रे भला। आणावें तया तस्कराला।। 

प्रतिपाळ करीं वहीला। अन्न -वस्त्र देऊनि।।२१९।। 

ऐसा हुकूम केला रायानें। मग तेली आला घराकारणें।। 

तेव्हां तेलियासी विक्रम म्हणे। गोष्ट सांगतों ऐका ते।।२२०।। 

मग राव म्हणे मेहेतरासी।तुम्हीं श्रुत न करावें कोणासी।। 

विक्रम आहे मम गृहासी। ऐसें कोठें न वदावें।।२२१।। 

मग तो तेली म्हणे राजेश्वरा। घाणा हांकावा माझिया घरा।। 

देईन मी अन्न आणि वस्त्रा। ऐसा नेम पैं माझा।।२२२।। 

मग विक्रम म्हणे तेलियासी। धन्य तुझी बुद्धि ऐसी।। 

तुझा उपकार न फिटे आम्हांसी। महासंकटीं रक्षिलें।।२२३।। 

ऐसें करितां कांहीं एक दिवस। होते झाले विक्रमास।।

तया तेलियाचे घरीं रात्रंदिवस। घाणा हांकितसे।।२२४।। 

तंव सात वर्षें परिपूर्ण झालीं। पुढें कथा कैसी वर्तली।। 

ती पाहिजे श्रवण केली। एकाग्र चित्तें करोनि।।२२५।। 

मग कोणे एके दिवशीं। सायंकाळ जाहली निशी।। 

घाण्यावर असतां विक्रमासी। बुद्धी कैसी आठवली।।२२६।। 

तो दीपरागाचा अवसर। ध्यानांत आणि राजेश्वर।। 

राग आळवितसे मधुर। सुस्वर कंठेंकरोनी।।२२७।। 

रागोद्धार करितां प्रत्यक्ष। दिप लागले लक्षानुलक्ष।। 

जैसी दीपावळीच देख। प्रकाशमान नगरांत।।२२८।। 

तंव एक स्तंभाच्या माडिंत। राजकन्या अतिरूपवंत।। 

नामें पद्मसेना निश्चिंत। बैसलिसे आनंदें।।२२९।। 

तेव्हां तीनें अवलोकीला प्रकाश। मग पाचारिलें परिचारिकेस।। 

म्हणे कोणें केलें दीपोत्सवास। शोध करोनि मज सांगा।।२३०।। 

दीपावली तों आज नाहीं। आणि लग्नही नसे कोठेंहीं।।

 तरी हें आश्चर्य दिसतें कांहीं। पाहुनि यावें सत्वर।।२३१।। 

इकडे दिपराग झाला संपूर्ण। तेव्हां दीप मावळले मुळींहुन।। 

मग दूसरा श्रीराग नामेंकरून। तेथें राग आळवितसे।।२३२।। 

पद्मसेना म्हणे परिचारिकेसी। हा पुरुष रागज्ञानी विशेषीं।। 

राग आळवितो अति सुरसीं। कोण्या स्थळीं पहा गे।२३३।।

याचा आणावा समाचार। धुंडाळावें सकळ नगर।। 

जेथे असेल तो नर। येथें आणा वेगेंसीं।।२३४।। 

तेव्हां परिचारीका चौघीजणी। नगरीं शोध करिती तत्क्षणीं।। 

तंव तो तेलियाच्या घरीं घाणी। हांकितसे चौरंगा।।२३५।। 

त्या परतोनि राजकन्येसी सांगती। कीं चौरंगा केला जो निश्चितीं।। 

तो तस्कर तेलियाच्या गृहाप्रति। घाणा हांकित बैसला।।२३६।। 

तोचि करीत आहे रागरंग। परी स्वरूप दिसताहे बेढंग।।

 जैसें कां शिंमग्याचें सोंग। ऐसियापरी दिसताहे।।२३७।। 

मग पद्मसेना म्हणे साचार। तरी घेऊनिया तो तस्कर।।

 जीवेंभावें करी भ्रतार। वेध लागला अंतरीं।।२३८।। 

परिचारीका म्हणती प्रमाण। परी राया श्रुत करावें जाण।। 

म्हणजे न लागे दूषण। शब्द न ये आम्हांवरी।।२३९।। 

तेव्हां पद्मसेना म्हणे तुम्हांस कायी। तयासी येथें आणावें पाहीं।। 

मग रायासी श्रुत करीन लवलाहीं। तुम्ही मनीं भिऊं नका।।२४०।। 

तेव्हा परिचारिका निघाल्या तेथूनि। येत्या झाल्या तेल्याचे दुकानीं।। 

मग त्या तेलियासी पुसोनी। त्यासि घेऊनि चालील्या।।२४१।।

एकस्तंभाच्या माडिवरी। तयासी नेलें पैं सत्वरीं।।

 मग त्यातें अवलोकुनि राजकुमारी। अंतरीं संतोषलि।।२४२।। 

मग ती वदे चौरंगासी। तुम्ही रागज्ञानी अतिविशेषीं।। 

तरी आतां रागोद्धार करावा वेगेंसीं। जेणें तृप्त होती श्रवण हे।।२४३।। 

मग तो करी रागोद्धार। यथान्याय गातसे सुस्वर।। 

कंठ त्याचा अति मधुर। जैसा गंधर्व दूसरा।।२४४।। 

ऐसा राजकन्येच्या माडीवर। रागरंग होतसे अपार।

 तंव चंद्रसेन आपल्या माडीवर। ऐकता जाहला।।२४५।। 

मग राव पुसे परिचारिकेस। आजि कुमारिकेच्या महालासी।। 

रंग होतो दिवसनिशिं। कोणे कार्यासी सांग पां।।२४६।। 

मग दासी म्हणती समर्था। हा अन्याय आम्हांसी लावितां।। 

परी हे निजकन्येची अवस्था। आम्हांकडे काय शब्द।।२४७।। 

परंतु आमुची एक विनवणी। येऊनि पहावें निजनयनीं।।

मग येईल कळोनी। सर्व अवस्था तेथील।।२४८।। 

पद्मसेनेचा विचार। आम्हां सांगतां न ये साचार।। 

म्हणोनि तेथें चलावें सत्वर। मग जे करणें ते करावें।।२४९।। 

तंव त्या रायासी निद्रा आली। पुढें कथा कैसी वर्तली।।

 ती पाहिजे श्रवण केली। एकाग्रचित्तें करोनियां।।२५०।। 

राजा विक्रम त्या माडीवर। बैसलासे चिंतातुर।। 

तंव साडेसात वर्षें साचार। भरलीं शनिदेवाचीं।।२५१।। 

राजा मनीं चिंता करीत। म्हणे केव्हां उज्जयिनी होईल प्राप्त।। 

क्लेश भोगिले अत्यंत। परी कृपा न करी ग्रहस्वामी।।२५२।। 

ऐसा राव चिंता करीत। तंव तेथें काय वर्तली मात।। 

शनिदेव होऊनि कृपावंत। सन्मुख उभा ठाकला।।२५३।। 

म्हणे ऐक राया विक्रमसेना। मज न ओळखसी अज्ञाना।। 

अद्यापि अनुभव तव मना। आला किंवा नाहीं।।२५४।।

मग राव उठूं पाहे झडकरोन। परी ते नाहींत कर -चरण।। 

तेव्हां तैसाचि भूमिशयन। लोटांगण घालितसे।।२५५।। 

तेव्हां शनि म्हणे राया विक्रमा। धन्य धन्य महिमा।।

 आतां मी प्रसन्न राजोत्तमा। इच्छा असेल ते माग।।२५६।। 

तंव विक्रम सद्रद बोले वचन। म्हणे मनुष्यदेहा न पीडीं जाण।। 

हेंचि द्यावें मज वरदान। कृपाळुवा शनिदेवा।।२५७।। 

म्यां दुःख सोशिलें अनिवार ऐसें प्राण्यांसि नाहीं सोसवणार।। 

तरी तूं कोणासि न पीडीं साचार। हेंचि मागणें शनिदेवा।।२५८।। 

ऐसें ऐकोनि शनिदेव। म्हणे धन्य धन्य तूं विक्रमराव।। 

परपीदेचा अनुभव। जाणतोसी निजांतरीं।।२५९।। 

तूं न मागसी हात -पाय। राज्यच्छत्रादि सुखोपाय।।

 तरी तुज ईश्वर म्हणों ये। परदुःख निवारिसी।।२६०।। 

मग कृपा उपजली शनिदेवासी। सुंदर काया पैं केली।।२६१।। 

मग राव शनिदेवाचे चरण धरी। म्हणे कृपाळुवा कृपा करीं।।

 हेंचि मागणें साचारी। न करी पीडा कोणासि।।२६२।। 

मग रायातें शनिदेव बोले। म्यां काय तुज दुःख दिधलें।।

 दुःख गुरुनाथें पाहिलें। ते कष्ट कोणे रीतीं।।२६३।। 

तुज दुःख दाविलें किंचित। म्यां कैसे त्रासिले देव -दैत्य।।

ते श्रवण करीं निश्चित। गुरूपीडा अवधारीं।।२६४।।

एके दिवशीं प्रातःकाळीं। नमन केलें गुरुमाउली।। 

मग हस्त जोडोनि ते वेळीं। विनंती करीं तयासी।।२६५।। 

अहो जी श्रीगुरुनाथा। मी तुमच्या राशिस येतों आतां।

 तरी मान्य करीं कृपावंता। साडेसात वर्षांतें।।२६६।। 

मग गुरु म्हणे गा मजसी। तुम्हीं कृपा करावी आम्हांसी।। 

न यावें आमुच्या राशिं। घडी एक जाण पां।।२६७।। 

मग मी वदलों ते वेळां। तुम्ही करितां माझा कंटाळा। 

तरी मज थारा नाहीं दयाळा। कोणी न करी मान्य मज।।२६८।। 

तरी पांच वर्षें मान्य करीं। अथवा अडीच वर्षें पदरीं धरीं।। 

अडीच वर्षांची परी। थोड़कीच असे।।२६९।। 

परी तें न मानीच गुरु। मग मी म्हणे न घडे निर्धारु।। 

पुन्हां मनीं केला विचारु। कीं गुरुसी न गांजावें।।२७०।। 

गुरु केवळ माउली।। सदा कृपेची करी साउली।। 

गुरुवचन न मानितां ये वेळीं। अधःपात प्राप्त होय।।२७१।। 

ते वेळां मी लागलों चरणीं। विनंती करीत विनीत वचनीं।। 

मी प्रसन्न तुज ग्रह शनी। माग माग गुरुनाथा।।२७२।।

तेव्हा गुरु म्हणे शनैश्वरा। आम्हांवरी कृपा करा।। 

न यावें आमुच्या शरीरा। हेंचि आतां मागतसें।।२७३।।

मग मी प्रसन्न जाहलों ते क्षणीं। साडेसात प्रहर येतों म्हणोनि।। 

तुम्ही मान्य न केल्या सर्व प्राणी। न मानिती मजलागीं।।२७४।। 

मग गुरुदेव म्हणे प्रमाण। तरी सव्वा प्रहर येणें जाण।। 

तें म्यां मान्य केलें वचन। मग आज्ञा दिधली गुरुनें।।२७५।। 

गुरु विचार करी निजमानसीं। स्नानसंध्यादि स्वकर्मासी।। 

करितां दवडीन सव्वा प्रहरासी। मग तो शनि काय करील।।२७६।। 

ऐसा गर्व धरिला मनांत। तो मज कळला वृत्तांत।। 

मग म्यां विचारिलें चित्तांत।। कांहीं चमत्कार दाखवुं।।२७७।। 

तंव ते आली ग्रहाची वेळ। तेव्हां गुरु जाहला उतावेळ।।

म्हणे मृत्युलोकीं गंगाजळ। तरी स्नानालागीं पैं जावें।।२७८।। 

शनिग्रहाची पडतां छाया। तेव्हां पालटली गुरुची काया।।

मग फकीरवेषें तया ठाया। शनैश्वर पातला।।२७९।। 

तयापासी खरबुजें होतीं दोन। तीं केलीं गुरुसी अर्पण।।

 मग गुरु हर्षयुक्त होऊन। दोन पैसे देत तया।।२८०।। 

मग स्नान करोनि ते वेळीं। धोतरांत फळें बांधिलीं।।

झारी शोभे करकमळीं। चालिलें ते मार्गानें।।२८१।। 

तंव पुढें दिसे एक नगरी। तेथें काय झाली परी।। 

राव-प्रधान समसरी। दोन पुत्र दोघांसी।।२८२।। 

ते उभयतां त्या दिवशीं। गेले होते शिकारिसि।। 

दोन प्रहर झाले तयांसी। वाट पाहे राजेंद्र।।२८३।। 

तंव ते येतां दिसेना। इकडे उशीर झाला भोजना।।

 तेव्हां सेवकांसी केली आज्ञा। धुंडूनि आणा दोघांसी।।२८४।। 

मग ते सेवक निघाले सत्वर। लगबगां आले गांवाबाहेर।। 

तंव तो पुढें देखिला विप्र। हातीं झोळी खरबुजांची।।२८५।। 

तंव शनैश्चरें केली माव। फळांचीं मस्तकें झाली सावयव।।

 सेवकीं ओळखिला ब्रह्मदेव। म्हणती तुम्हांपासिं काय आहे।।२८६।। 

ब्राह्मण म्हणे सेवकांसी। खरबूजें घेतलीं फराळासी।। 

सेवक म्हणती रुघिरासी। स्त्राव होतो दिसताहे।।२८७।। 

तूं ब्राह्मण किंवा शूद्र। वस्त्रांतून गळे रुधिर।। 

काय आहे तें सत्वर। दाविजे पैं आम्हांसी।।२८८।। 

मग गुरु झाला भयभीत। म्हणें हें अघटित काय वदत।।

 अधोदॄष्टीं झोळी पाहत। तंव तें रुधिर प्रत्यक्ष।।२८९।। 

सेवक झोळी घेती हीरोन। मग ते पाहती सोडोन।। 

तंव शिरकमळें निघालीं दोन। प्रधान -राजपुत्रांचीं।।२९०।। 

सेवक म्हणती रे चांडाळा। महादुष्टा पतिता खळा।। 

ब्रह्मवंशीं अमंगळा। दया नाहीं तुज अंतरीं।।२९१।। 

मग ते क्रोधयुक्त मानसीं। बंधन करिती ब्राह्मणासी।।

मारित मारित तयासी। रायपाशीं आणिलें।।२९२।। 

रायासन्मुख उभा करुन। सेवक सांगती वर्तमान।।

 हा बाळहत्यारी ब्राह्मण। यानें उभयतांसी मारिलें।।२९३।। 

ऐकतांचि रायासी आली मूर्च्छना। मनीं म्हणे कैसें केलें नारायणा।। 

एक पुत्र होता तोही मनां। नाहीं आला तुझ्या कीं।।२९४।। 

ब्राह्मण नोहे हा काळ। यानें गिळिला माझा बाळ।।

तरी यासी नेऊनि तत्काळ। सुळावरी देइजे।।२९५।। 

ऐसा हुकूम होतां रायाचा। सुळ करविला लोखंडाचा।।

 नेऊनि रोविला पैं साचा। नगराबाहेरी।।२९६।। 

तंव भृगुचिया मंदिरांत। वर्तमान झालें श्रुत।। 

तेव्हां एकचि वर्तला आकांत। तो लिहितां ग्रंथ विस्तारेल।।२९७।। 

परी राजपुत्राची कामिनी। पतिव्रता लावण्यखाणी।। 

वार्ता ऐकतां तत्क्षणीं। सती जावया सिद्ध झाली।।२९८।। 

आतां इकडे गुरुनाथासी। घेऊनि गेले सुळापाशीं।।

 तेव्हां न सुचे कांहीं गुरुसी। ग्रहदशेनें वेष्टिलें।।२९९।। 

मग गुरु वदे सेवकाला। आतां सुळीं न द्यावें आम्हांला।। 

दहा सहस्त्र रूपये तुम्हांला। देतों क्षणभरी थांबावें।।३००।। 

दोन घटिका आम्हांसी। सुळीं न द्यावें निश्चयेंसीं।।

 मग अवलोकावें नेत्रेंसीं। कैसें होईल तें।।३०१।। 

ऐसे करुणशब्द बोलतां तयां। मग त्या सेवकांसी आली दया।। 

तेव्हां ते म्हणती दोन घटिकां थांबोनियां। मग देऊं सुळावरी।।३०२।। 

ऐसें बोलतां बोलतां जाण। सव्वा प्रहार झाला परिपूर्ण।।

 प्रधान राजपुत्र दोघेजण। आले वारुंसहित।।३०३।। 

जेणें रायासी जाणविलें। त्याचें दरिद्र दूर केलें। 

मग सेवकांसी आज्ञापिलें। सुळीं न द्यावें ब्राह्मणा।।३०४।। 

तेव्हां सेवक धांवले सत्वर। येऊनी नगराबाहेर।। 

सांगितला समाचार। सुळीं न द्यावें ब्राह्मणा।।३०५।। 

मग तो आणिला रायपाशीं। उभा राहिला सन्मुखेंसीं। 

आशीर्वाद देउनियां रायासी। आपुला वृत्तांत निवेदिला।।३०६।। 

ऐकोनि राव झाला सद्रदित। म्हणे मज नव्हें विदित।। 

मी दूषण लावोनी वधीत। होतों तुम्हां गुरुराया।।३०७।। 

धिग धिग हा संसार। मी महापापी अनिवार।। 

केवढा केला अविचार। राज़्यमदेंकरोनियां।।३०८।। 

तेव्हां सद्रादित झाला नृपती। गुरुचरण धरिले प्रीती।। 

स्फुंदस्फुंदोनि रडे निश्चितीं। मी अपराधी गुरुराया।।३०९।। 

नेणतपणें जाहला अविचार। तो क्षमा करीं साचार।। 

मग हात धरोनि सत्वर। सिंहासनीं बैसविला।।३१०।। 

मग गुरु म्हणे ऐक भूपाळा। हा अन्याय नाहीं तुजला।। 

ही शनैश्चराची कळा। दुःख दाविलें तयानें।।३११।। 

मग झोळीं आणोनि पाहती। तंव तीं खरबुजेंच दिसतीं। 

शिरकमळांची आकृती। अदॄश्य जाहली तत्काळ।।३१२।। 

असो रायें करविलें भोजन। गुरुपंक्तिस बैसला आपण।। 

आणखीही दिव्य ब्राह्मण। सर्वही तृप्ती पावले।।३१३।।

मग गुरुसी वस्त्रें -भूषणें। दिधलीं राया भृगुनें।। 

तेव्हां आज्ञा घेऊनि गुरुनें। प्रयाण केलें तेथोनी।।३१४।। 

मग शनिदेव आले गुरुपाशीं। नमन केलें साष्टांगेंसीं।। 

म्हणे वर्तणुक जाहली कैसी। ती सांगावी गुरुनाथा।।३१५।। 

गुरु म्हणे बापा शनैश्चरा। सव्वा प्रहरांत केला माझा मातेरा साडेसात वर्षें येतासी खरा। 

तरी मग काय होतें काळेना।।३१६।। 

तूं ग्रहामाजी ग्रह श्रेष्ठ। जीवांसी देसी बहु कष्ट।।

 मी गुरु तुज अतिश्रेष्ठ। बरा उपकार फेडिला।।३१७।। 

असो जें जाहलें तें बरें झालें। परी ऐसें कोणा न कष्टवीं  वहीलें।।

तुझ शपथ माझी ये वेळे। शनिग्रहा समर्था।।३१८।। 

मग शनिदेव म्हणे गुरुसी। गर्व न धरावा मानसीं। 

गर्व धरिल त्या पुरुषासी। ऐसेंच मी गांजीन।।३१९।। 

गुरूजी तुम्हांसी गर्व जाहला। म्हणोनि हा अपराध घडला।।

तरी क्षमा करा बाळकाला। अपराध पोटीं घालिजें।।३२०।। 

मग शनि गेला शिवापाशीं। म्हणे आतां येतों मी तुम्हांसी।।

 तंव शंभु म्हणे आम्हांसी। काय करिसी येऊनि।।३२१।। 

परी येशील तेव्हां सांगून येणें। ऐसें उभयतां झालें बोलणें।।

 मग दूसरे दिवशीं शनीनें। येतों म्हणोनि सुचविलें।।३२२।। 

शंकरें ऐकोनि वचनासी। क्षण एक लपला कैलासिं।। 

मग वदना झाला शनीसी। तुवां आमचें काय केलें।।३२३।।

मग शनि म्हणे महादेवा। तुमचा धाक त्रिभुवनीं सर्वां।। 

मजभेणें लपलेती देवाधिदेवा। हें काय थोडें असे।।३२४।।

ऐकोनि हास्य करी कैलासराज। म्हणे धन्य तुझें उग्र तेज।।

 मग त्यातें कृपा करुन सहज। आज्ञा देत शनीला।।३२५।। 

मग ग्रह आला रामचंद्रासी। वनवास भोगविला तयासी।। 

आणि ग्रह येतां सीतेसी। रावणें चोरुन पैं नेलें।।३२६।। 

रावणाच्या मंचकाखालते। नवग्रह होते पालथे।। 

त्यावरी मंचक ठेवूनि निरुतें। रावण पहुडे नित्यकाळीं।।३२७।। 

मग तेथें आले नारदमुनी। ते वदले झाले मजलागुनि।। 

तूं ग्रह श्रेष्ठ महाअभिमानी। ऐसी दशा तुमची।।३२८।। 

तरी येथें तुमचें कांहीं न चाले। गरीबांसी कष्टवितां बळें।।

 हें सामर्थ्य नव्हे आगळें। उगाचि पुरुषार्थ भोगितां।।३२९।। 

मग शनि वदे नारदासी। आम्ही पालथे ते सोयीचे करविसि।। 

मग पाहें पराक्रमासी। कैसा आहे तो दाविन।।३३०।। 

नारद म्हणे मी ऐसें करीन। ऐसें बोलोनियां वचन।। 

मग रावणापाशीं जाऊन। सांगे तयासी विचार।।३३१।। 

म्हणे ग्रह पालथे घालून। मंचकीं निद्रा करिसी रात्रंदिन।। 

तरी हें अनुचित असे जाण। वैरियांच्या उरावरी पाय द्यावा।।३३२।। 

ते वचन रावणा मानलें। मग पालथे ते सोयीचे केले।। 

मग तेथे काय वर्तलें। तें परिसावें सज्जनीं।।३३३।। 

दॄष्टि फिरवितां शनैश्चर। षण्मासांत सहपरिवार।। 

निर्दाळि श्रीरामचंद्र। पुत्रपौत्रांसहित पैं।।३३४।। 

हरिश्चंद्रासी आला शनि। बारवा अति क्रूर स्थानीं।।

पीडिता झाला कौशिकमुनी।  राज्यभ्रष्ट तो केला।।३३५।। 

पुढें अतिदुःख दिधलें तयासी। स्त्री -पुत्रादि घातले विक्रयासी।। 

स्वयें विकला डोंबासी। तेथेंही जाचीलें बहुत।।३३६।। 

ऐसें कष्टविलें राजोत्तमा। दमयंतीप्राणमनोरमा।।

 दुःख दिधलें हे विक्रमोत्तमा। पीडियेली दमयंती।।३३७।।

ग्रह आला इंद्रराया। भोगिली गौतमाची जाया।। 

भगांकित झाली सर्व काया। ॠषिशापेंकरोनियां।।३३८।। 

ग्रह आला चंद्रासीं। स्पर्श केला गुरुपत्नीसी। 

कलंक लागला चंद्रासी। ऐसें झाले जाण पां।।३३९।। 

ग्रह आला वसिष्ठासि। क्षण झाला शत पुत्रांसी।। 

तैसेंच पीडिलें पराशरासी। मस्त्यगंधा भोगिली।।३४०।। 

पांडव ग्रहदशा भोगीत। राज्य हरोनी गेले वनांत।। 

कौरवांचा क्षय केला क्षणांत। ग्रह येतांचि तत्काळीं।।३४१।। 

तैंसाचि श्रीकृष्णासी ग्रह आला। स्यमंतकाचा डाग लागला।। 

तो कोणत्या कारणें निघाला। हरिविजयीं ती कथा।।३४२।। 

मग कृष्ण म्हणे शनैश्चरा। तूं महासमर्थ होसी खरा।। 

सर्वत्रांसि तुझा दरारा। देवदानवादिकांसी।।३४३।। 

ऐसें देवादिकांसी त्रासिलें। त्यांत तुजला कांहींसें दुःख दिधलें।। 

किंचित चमत्कारासी दाविलें। समजावया तुजलागीं।।३४४।। 

मग विक्रम उठे झडकरी। साष्टांग नमस्कार करी।। 

धन्य शनैश्चरा अवधारीं। पावन केलें मजलागीं।।३४५।। 

आतां मी तुज अनन्यशरण। कृपा करीं अनाथा लागून।। 

हेंचि द्यावें वरदान। न पीडा प्राणिमात्रासी।।३४६।। 

मग शनि म्हणे विक्रमासी। धन्य तूं परोपकारी होसी।।

 परपीडा निवारितोसी। उपमा नाहीं तुजलागीं।।३४७।। 

तेव्हा प्रसन्न झाला शनैश्चर। रायासी देता झाला निज वर।

 हा ग्रंथ श्रवण पठण करी जो नर। तयासी पीडा न करीं मी।।३४८।। 

भावें करितां श्रवण पठण। आदरें ग्रंथसंरक्षण।। 

त्यासी रक्षीं मी रात्रंदिन। कृपा करीन सर्वथा।।३४९।। 

जो कां श्रवण पठण न करी। आणि ग्रंथाची हेळणा करी।।

 तया नराच्या शरीरीं। पीडा फार करीन मी।३५०।। 

श्रवण -पठणाचा ऐका विचार। नित्य अथवा शनिवार।। 

श्रवण -पठण करी जो नर। उपोषणें अतिसंतोषें।।३५१।। 

जरी न करवे उपोषणासी। तरी श्रवण करावें अहर्निशीं।। 

तेणें संतोष मम मानसीं। मग पीडीं न करी तत्त्वतां।।३५२।। 

हें वचन माझें नेमस्त। विक्रमासी भाष देत।। 

त्या नरसी मी भाग्यवंत। करिन जाण निर्धारें।।३५३।। 

ऐसा वर देऊनि रायासी। शनिदेव गेले निजस्थानासी।। 

पुढें कथा वर्तली कैसी। ती श्रवण करावी श्रोते हो।।३५४।। 

राजकन्येच्या माडीवर। विक्रमासी भेटले शनैश्चर।।

 तेव्हा रायाचें दिव्य झालें शरीर। जैसा सूर्य प्रकटला।।३५५।। 

तंव चंद्रसेन राव आला। पाहे तंव देखे विक्रमाला।। 

जैसा मदनाचा पुतळा। तटस्थ जाहला मानसीं।।३५६।। 

मग ते पद्मसेना राजकुमारी। राया विक्रमातें वरी।

 राव पुसे अवसरीं। आपण कोण महाराज।।३५७।। 

विक्रम वदे साचार। मी तुमचा असें चोर।। 

श्रीपति वैश्य सावकार। बोलावा आधीं तयासी।।३५८।। 

तंव ते धांवली सेवकांची मांदी। वैश्य बैसला होता गार्दी।। 

म्हणती बोलाविलें रायें आधीं। सत्वर तेथें चलावें।।३५९।। 

वैश्य उठला झडकारोन। येऊनि रायासी करी नमन।। 

राव म्हणे वैश्यालागुन। हाचि तस्कर होय कीं।।३६०।। 

वैश्य म्हणे रायासी। आतां चला मम मंदिरासी।। 

अवश्य म्हणोनि वेगेसीं। चित्रशाळेसी पातले।।३६१।। 

तंव चित्रींचा निर्जीव हंस। जेणें गिळिलें होते हारास।। 

तो पुनः उगळी सावकाश। जैसा होता तैसाचि।।३६२।। 

हार उगळीतां हंसानें। तो पाहिला सर्वजनें।।

 हें आश्चर्य सकळांकारणें। म्हणती हें अघटित।।३६३।। 

मग तो वैश्य वाणी। बहु संतोषला निजमनीं। 

कन्या अर्पुनि चरणीं। विक्रमाच्या लागला।।३६४।। 

जन म्हणती अघटित कला। निर्जीव चित्रें हार गिळिला।। 

दोष लाविला महापुरुषाला। तें आजि कळूं आलें।।३६५।। 

चंद्रसेन पुसे विक्रमासी। आपण राहतां कोणे देशीं।। 

कोण नाम कोणे वंशीं। जन्म तुमचा सांगावा।।३६६।। 

तंव विक्रम म्हणे चंद्रसेना। काय पुससी विचक्षणा। 

मी असें उज्जयिनीचा राणा। नाम माझें विक्रम।।३६७।। 

ऐसें ऐकतां राजेश्वर। घाली साष्टांग नमस्कार। 

म्हणे अन्याय घडला थोर। कृपा करी दयाळा।।३६८।। 

तेव्हांच कीं असतें श्रुत। तरी कष्ट कां होते प्राप्त।।

 न कळतां झालें अनुचित। त्यासी उपाय कायसा।।३६९।। 

विक्रम म्हणे राजेश्वरा। हा आमुच्या ग्रहदशेचा फेरा।। 

पूजन न केलें शनैश्वरा। म्हणोनि कष्ट पावलों।।३७०।। 

तंव ग्रह नव्हता सानुकूळ। म्हणोनि तव बुद्धि विकळ।। 

आतां ग्रह झाला सानुकूळ। म्हणोनि ऐसें वदतोसी।।३७१।। 

असो रायानें सोहळा केला फार। फोडिलें द्रव्याचें भांडार।। 

धर्म केला अपार। याचकजन संतोषती।।३७२।। 

मग तो तेली बोलाविला। विक्रमें तयासी नमस्कार केला। 

एक देश तया देवविला। सुखी केला तये वेळी।।३७३।। 

चंद्रसेन सर्षभरित। म्हणे मम भाग्यासी नाहीं अंत।। 

विक्रम जोडला जामात।धन्य मी एक संसारीं।।३७४।। 

ऐसें करितां एक एक मास। झाला राया विक्रमास।। 

मग पुसोनियां चंद्रसेनास। आज्ञा मागतसे नृपती।।३७५।। 

मग चतुरंग दळ सिद्ध करुन। हत्ती घोडे दास -दासी जाण।। 

देश पट्टणें ग्राम देऊन। जमातासी बोळविलें।।३७६।। 

तंव त्या सावकारें आपण। नाना वस्तु अनर्घ्य रत्न।। 

विक्रमासी देऊन। बोळवण केली कन्येची।।३७७।। 

असो सवें घेऊनि दळभार। उज्जयिनीसी आला राजेश्वर।। 

नगर शृंगारिलें सत्वर। अति आनंद होतसे।।३७८।। 

मग सुमुहूर्त पाहुनी। विक्रम बैसविला सिंहासनीं।। 

याचक तृप्त केले दानीं। चिंता चित्तीं असेना।।३७९।। 

मग हें शनैश्चरव्रत। राजा विक्रम आचरित।। 

पीडा गेली समस्त। शनिप्रसादेंकरोनि।।३८०।। 

ही महाराष्ट्रभाषेची कथा। परी अर्थाविषयीं नाहीं न्यूनता।। 

यथामती वर्णिली तत्त्वतां। श्रवण करा भाविक हो।।३८१।। 

हा ग्रंथ करितां श्रवण। सकळ विघ्नें जाती निरसून।।

 ग्रहपीडा अति दारुण। न बाधे कदा कल्पांतिं।।३८२।। 

ऐकतां कथा नवग्रहांची ,येणें पीडा निवारे क्लेशांची।। 

वार्ताही नूरे दुःखाची। कृपा करिती ग्रह सर्व।।३८३।। 

श्रवणपठणीं निदिध्यास। लेखक पाठक सर्वांस।। 

ग्रंथ संरक्षी तयांस। क्लेश विघ्नें न बाधती कदा।।३८४।। 

ही शनैश्चराची ख्याती। केवळ शनैश्चराची मूर्ति।। 

अहर्निशी जे कां ध्याती। त्यांसी संरक्षी शनिदेव।।३८५।। 

सकळ दुःख दरिद्र। येणें निरसेल समग्र।। 

भावें श्रवण करितां साचार। फळ प्राप्त तयांसी।।३८६।। 

म्हणे तात्याजी महिपती। हे प्रीति पावो शनैश्चराप्रती।। 

कृपाळू तो उग्रमूर्ति। निर्विघ्न करी सर्वांसी।।३८७।। 

इति श्रीशनैश्चराची कथा। त्याचा तोचि वदविता।। 

आपुली तो मायिक वार्ता। करविता श्रीपांडुरंग।।३८८।।

 

।। इति श्री शनैश्चरमाहात्म्यं संपूर्णम।।

 

।। शन्यष्टक।।

नमो सूर्यसुता तुझी धन्य कीर्ति।।न चाले मती वर्णितां स्तब्ध होती।।

लीलानाटकी अंत ना पार माया।। अहा धन्य तूझी शनिदेवराया।।१।।

आली स्वारी ती गोचरी दृष्टिठायीं।। सखे सोयरे इच्छिति दुष्टताही।।

धना हानि होती नसे कांहीं माया।। अहा धन्य ० ।।२।। 

जनीं मान्य ते लौकिकीं द्वेष वाढे।। कुडें पावडें येति अंगासी गाडें। 

न मीटे कधीं यत्न जाताति वांया।। अहा धन्य ०।।३।।

नसे कांहीं कोठें मना जो सुवारा।। पडे अंतरी येउनि दुःखभारा। 

करूं इच्छीतां गोष्ट जाते अपाया।। अहा धन्य ० ।।४।।

कुटुंबांत जी प्रीय होतीं जिवाचीं।। तिहिं फिरलीं दुष्ट झालीं मनाची।।

नसे तोचि घेती मनामाजीं थाया।। अहा धन्य ०।।५।।

नसे चैन कांहीं उदासी मनातें।। तुझ्यावांचूनी कोण दे शांति त्यातें।।

नको क्लेश दावूं करी पूर्ण छाया।। अहा धन्य ० ।।६।।

उठे चिंत्तिं चिंता जिवा रोग लागे।। झटें झोंबटें लागतां पाठिमागें।।

अहोरात्र तो त्रास वाटो जिवा या।। अहा धन्य ०।।७।।

अबाधित लीला तुझी कोण वाणी।। चमत्कार तो दाविला शूळपाणी।।

गिरिकंदरीं लविलासी फिराया।।अहा धन्य ०।।८।।

कथा एकिली सर्वही विक्रमाची।। आली त्यापरी संधि वाटे अतांची। 

महासंकटें येति कंठीं भिडाया।। अहा धन्य ०।।९।।

फूटे छाती ते ऐकतां साडेसाती।। आतां ती आली माझिया कर्मपातीं।।

कृपावंत तूं हात दे गा तराया।। अहा धन्य ०।।१०।।

किती दुःख सांगूं नसे पार याला।।नसे थार कोठें बसाया मनाला।।

कृपाळूपणें पाहीं तूं होय वाली।।प्रीतिनें पदीं रुंजी रखमाजि घाली।।अहा धन्य ०।।११।।

 

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